ज्योतिर्लोक
खट्टी-मीठी यादें
अगर आप भी अपने खट्टे-मीठे अनुभवों/यादों को बांटना चाहते हैं तो खट्टी-मीठी यादों में आपकी उन रचनाओं का स्वागत है , जो सत्य घटनाओं पर आधारित हों |
रविवार, 9 जुलाई 2023
ज्योतिर्लोक
बुधवार, 5 अप्रैल 2023
भक्त के वश भगवान्
भक्त के वश भगवान्
मेरा एक अनुभव " मुट्ठी में भगवान् " और दूसरा " भक्तों के बस में भगवान्' | जिसे मैं लिखने पर मजबूर हूँ | सोमवार दिनांक ०३-०४-२०२३ , समय सुबह ५:३० बजे | हम नहा धोकर कमरे से बाहर निकले ताकि सुबह-सुबह श्री राधा-वल्लभ जी की आरती के दर्शन हो जाएंगे | हमने बाहर निकलकर इस्कॉन मंदिर के पास एक ई-रिक्शा किया , जिसमें पहले से ही एक अधेड़ उम्र की औरत बैठी थी और बांके बिहारी जी के दर्शनार्थ निकली थी | वह मुम्बई से थी | बातचीत में उसने बताया कि वह तीन दिन से वृन्दावन में है और अपने बुजुर्ग माता-पिता को यात्रा करवाने आई है | कहते-कहते उसकी आँखें छलक आईं कि इतनी भीड़ के चलते वह बिहारी जी के दर्शन नहीं कर पाई और आज सुबह- सुबह इसलिए जा रही हूँ क्योंकि आज हमारी वापसी है और मैं देहरी पर प्रणाम करने अपनी हाजिरी लगाकर चली जाऊंगी, इतनी भीड़ में माता-पिता को नहीं ला सकती | भीड़ वास्तव में बहुत ज्यादा थी | इतने में बांके बिहारी जी मंदिर वाली गली में ई-रिक्शा वाले ने हमें यह कह कर उतार दिया कि इससे आगे वह नहीं जा पायेगा | सुबह का समय था और सोमवार को भीड़ भी थोड़ी कम हो चुकी थी | हम जैसे ही उतरे , वह बिहारी जी मंदिर वाली गली में मुड़ने लगे और न जाने क्यों मैंने कह दिया कि , इस समय तो मंदिर खुला नहीं है , आपको दर्शन न हो पाएंगे , आप हमारे साथ राधा-वल्लभ जी के दर्शन कीजिये और हमारे साथ वापिस आकर बिहारी जी के दर्शन कर लेना , क्योंकि हमने भी वहीं आना था | वह एक बार झिझकी और फिर मुझे देखकर बोली , 'क्या आप मेरे साथ रहेंगी ?' मैंने भी हाँ बोल दिया और इससे मुझे कोई फर्क भी नहीं पड़ता था | वह हमारे साथ हो ली | हमने राधा-वल्लभ जी की आरती के दर्शन किए और फिर सेवा-कुञ्ज में | बाद में जब बिहारी जी मंदिर पहुंचे तो हमें काफी पीछे लाइन में लगना पड़ा और देखते ही देखते हमारे पीछे कुछ ही मिनटों में लम्बी लाइनें लग गईं | अब हम बीच में थे | वह औरत लगातार मेरा हाथ पकडे थी , मैं माँ का और मेरी माँ मेरी बहन का ताकि भीड़ में हम कहीं इधर-उधर न हो जाएँ | तय था कि एक दूसरे का हाथ नहीं छोड़ेंगे | आखिर हम मंदिर के अंदर पहुँच ही गए , बिहारी जी के दर्शन किए | मुश्किल तो हुई लेकिन मन गदगद हो उठा | इतनी भीड़ में हमारे लिए मंदिर के अंदर प्रवेश करना अपने आप में एक चमत्कार था | जैसे ही दर्शन करके बाहर निकले , उस औरत की आँखे नम हो उठीं और न जाने कितनी बार उसने हमें धन्यवाद बोला और साथ ही यह भी कहा कि मैं पहली बार यहां आई हूँ , आपके साथ जो दर्शन किए , वह न तो मुझे पता था और न ही मेरे लिए संभव था | हमें सुनके असहज लगा क्योंकि उसकी सहायता हम नहीं स्वयं बिहारी जी कर रहे थे , हम तो बस एक माध्यम थे | फिर भी, हम भी प्रसन्न थे और सोच रहे थे कि -श्रद्धा है तो भगवान् किसी भी रूप में कोई न कोई सहारा बना ही देते हैं | वह घर से निकल पडी थी भगवान् के भरोसे -बिना किसी उम्मीद के और जा रही थी भारी मन से | दर्शनोपरांत उसका मन प्रसन्न था और मन का बोझ अश्रुधारा बनकर बह चुका था | इस बार मैंने उसे अश्रु बहाने से नहीं रोका क्योंकि वो प्रेम के अश्रु थे , जिससे मन निर्मल होता है और ऐसी पवित्र भाव-धारा को बहने से मैं रोकना नहीं चाहती थी |
इस सब के बाद वह चली गयी और बाद में याद आया कि न उसने हमसे हमारा नाम पुछा और न ही हमने | मैं उसका नाम तक नहीं जानती किन्तु इतना अवश्य अनुभव किया कि भगवान भक्तों के वश में हैं बस जरूरत है तो सच्ची श्रद्धा की |
मंगलवार, 4 अप्रैल 2023
मुट्ठी में भगवान् - स्व-अनुभव
शुक्रवार, 11 जून 2010
चुभन-भाग ६
" मुझे माफ़ कर देना नलिनी ,आभारी हूँ तुम्हारा की तुमने मुझे अच्छे प्यार की परिभाषा समझा कर मेरी जिन्दगी में एक नयापन ला दिया और मैं नए सिरे से प्यार के उस रूप की कल्पना करने लगा जिसको मैंने पहले कभी महसूस ही न किया था
अपनेपन के अहसास नें मेरा जीवन , सोच समझ सब बदल दिया था और अब मैं तुम्हें जिंदगी भर की खुशियां देना चाहता था , हर पल तुम्हारे साथ जी लेना चाहता था
मैं भी चाहता था , अपना छोटा सा खुशहाल परिवार , प्यारा सा घर और ढेर सारी खुशियाँ , नन्ही किलकारियों को सुनाने की हसरत मेरे मन में भी पनपने लगी थी , लेकिन जब तक मैं अपना यह सपना पूरा कर पाता तब तक बहुत देर हो चकी थी ।मुझे अचानक से पता चला कि मैं एच .आई.वी पाज़िटिव हूं । मैनें तुम्हारे और बच्चों के अस्पताल में बिना तुम्हें बताए सभी टैस्ट करवाए हैं , शुक्र है तुम तीनों पर इसका कोई प्रभाव नहीं है । मैनें बच्चों के नाम हम दोनों के नाम पर ही रिंकु और नीलु रखे हैं ।मैं नहीं चाहता कि मेरी परछाई भी इन मासूम बच्चों पर पडे । इसलिए मैं सब छोड-छाड कर जा रहा हूं , कहां ? मैं खुद नहीं जानता ।मैनें अपनी सारी प्रापर्टी बच्चों के नाम कर दी है और तुम पर पूरा भरोसा है कि तुम बच्चों की परवरिश अच्छे से करोगी । मैं अपने किए पर शर्मिन्दा हूँ , इस काबिल तो नहीं कि तुमसे माफी भी मांग सकूं फिर भी हो सके तो मुझे माफ़ कर देना
"
तुम्हारा
राकेश
यह पढकर अभी मैं इससे पहले कुछ सोच पाती कि चाय की ट्रे के साथ पडे अखबार पर नज़र पडी
राकेश कंस्ट्रक्शन कंपनी के मालिक की कार दुर्घटना में मौत.......।
उस दिन मुझ पर क्या गुजरी होगी , वो शब्दों में बता ही नहीं सकती । पता नहीं जिदगी मुझसे बार-बार इम्तिहान क्यों ले रही थी । क्यों मैं हर बार हार कर भी जीने पर मजबूर थी ? पहली बार राकेश नें जीने पर मजबूर किया तो अब की बार उस के बच्चों नें । मैं इतनी नासमझ तो नहीं थी , मुझे समझने में राकेश नें भी बहुत बड़ी भूल की थी , क्या मैं उसे अपनी भावनाओं का संबल न देती
काश ! उसनें नकारात्मक सोच न अपनाई होती तो मेरे बच्चों के सर पर आज भी बाप का साया होता और मुझे वैधव्य जीवन जीने को मजबूर न होना पड़ता
काश राकेश नें समझा होता कि वह भी एक आम इंसान की तरह जी सकता है , काश उसनें अपनी तकलीफ मुझसे बांटी होती तो हमारा जीवन आज कुछ और होता , पर अब यह सब बातें बस सोचने के लिए ही रह गयी थी , जो हर पल मुझे चुभती रहती हैं और मैं कुछ नहीं कर पाती
बस तब से मैंने अपनी जिंदगी का मकस्द बना लिया कि मैं एडस के प्रति जागरूक्ता अभियान चलाऊंगी । अपने सीने में दफ़न उस चुभन का अहसास मैं कभी कम न होने दूंगी । यही है मेरे अधूरे प्यार की चुभन को मेरी सच्ची श्रधांजलि ।
समाप्त
बुधवार, 9 जून 2010
चुभन- भाग ५
इससे मुझे मानसिक शान्ति मिलती है......और खामोश हो गई । उसकी खामोशी मेरे गले नहीं उतर रही थी ।
मैं उसके इस जवाब से संतुष्ट न थी और सीधा-सीधा राकेश के बारे में पूछने का साहस भी न जुटा पा रही थी ।नलिनी समझ गई कि मैं वास्तव में जानना क्या चाहती हूं । मैं ही नलिनी को समझ नहीं पा रही थी , वो तो मुझसे भलि-भांति परिचित थी ।थोडी खामोशी के बाद वह स्वयं बोलने लगी.......
तुम्हें पता है नैनां मेरे दो प्यारे-प्यारे बेटे हैं ,जुडवां हैं , बिल्कुल एक जैसे । शक्ल में राकेश की कार्बन कापी हैं , कहते-कहते नलिनी के चेहरे पर मां की ममता स्पष्ट झलक आई । मां कितना भी दुखी क्यों न हो , बच्चों की बात आते ही अनायास ही चेहरे पर मुस्कान और ममता उमड ही आती है । कुछ समय पहले जो नलिनी फ़ूट-फ़ूट कर मेरे सामने जिसके कारण रो रही थी ,वही नलिनी उसी के बच्चों के लिए सब कुछ भुला इस तरह मुस्कुरा रही थी कि मुझे उसका कोई रूप समझ ही नहीं आ रहा था । कोई इंसान इतने रूप कैसे बदल सकता है ।
अब मुझसे रहा न गया और मैनें पूछ ही लिया ...
क्या तुमनें राकेश से फ़िर कभी बात की .........।
नहीं..........।
क्यों .......?
मैं उस समय पेट से थी , हालत इतनी नाजुक थी कि कहीं आ जा नहीं सकती थी । मुझे देखने वाला कोई न था , एक मेरी काम वाली बाई के अलावा । तब से लेकर आज तक वही मेरा साथ निभा रही है । मैं आफ़िस जा नहीं सकती थी , राकेश को कई बार फ़ोन लगाया लेकिन कभी उसनें बात न की । मैं राकेश की नियत समझ चुकी थी लेकिन फ़िर भी एक बार उससे बात करना चाहती थी । अब राकेश के लिए मेरी भावनाएं खत्म हो चुकी थीं , मन में उसके प्रति नफ़रत बसने लगी थी और जिसके साथ नफ़रत हो जाए उसके साथ होने का भी कोई फ़ायदा नहीं , मैं बस एक बार उसको एक बार उसकी गलती का अहसास कराना चाहती थी , वो मौका मुझे कभी नहीं मिला । बच्चों के जन्म के बाद मैं दो महीने तक जिंदगी और मौत के बींच झूलती अस्पताल में रही । इस दौरान किसनें मेरा इलाज़ करवाया , बच्चों का सारा जरूरत का सामान कौन ले आया और क्यों ? मुझे कुछ पता न चला । ठीक होते ही मैनें अस्पताल में इलाज के खर्चे की बात की तो पता चला कि वो तो किसी नें पूरा का पूरा बिल चुका दिया है । मैं हैरान थी , ऐसा किसनें किया और क्यों लेकिन कुछ भी जान न पाई कि वो कौन है ? खैर मैं दोनों बच्चों को लेकर घर आ गई , और फ़ैसला किया कि अब तो मैं राकेश को कभी माफ़ करुंगी ही नहीं । तब मुझे बच्चे बोझ लगने लगे थे । सोचा था इन्हें राकेश के घर के बाहर फ़ैंककर उसके पाप को दुनिया के सामने लाऊंगी । इन्हीं उलझनों में उलझी मैं घर पहुंची , घर में मेरी काम वाली बाई नें मां के जैसा स्वागत किया । बच्चों को उसनें संभाल लिया और मैं रात भर सुबह होने का इंतज़ार करती रही कि आज तो किसी न किसी तरह मैं राकेश को बेनकाब करके ही छोडूंगी । बदले की आग में जलते हुए मुझे पूरी रात एक पल भी चैन न मिला । मैं सुबह-सुबह उठी और तैयार हो ही रही थी कि बाई चाय लेकर मेरे कमरे में आई । चाय के साथ-साथ उसनें मेरे हाथ में एक स्लिप भी थमा दी ,
ये स्लिप एक गाडी वाले साहब आए थे , उन्होंनें आपके घर आने पर आपको देने को कहा था ।
मैनें खोलकर देखा और मेरी आंखें फ़टी की फ़टी रह गईं ।
क्रमश:
सोमवार, 19 अप्रैल 2010
चुभन - भाग ४
चुभन - भाग 2
चुभन - भाग 3
मैं बस सुन रही थी , नलिनी बोलती जा रही थी , ऐसे जैसे वह कोई आप-बीती न कहकर कोई सुनी-सुनाई कहानी सुना रही हो । उसके चेहरे पर कोई भाव न थे , या फ़िर अपनी भावनाओं को उसनें हीनता के पर्दे से इस तरह ढक रखा था कि किसी की नज़र उस तक जा ही न पाए । क्या बिना किसी भाव के कोई अपनी बात कह सकता है , मैं सोचने पर विवश थी और नलिनी इसकी प्रवाह किए बिना बोलते जा रही थी ----
तीन दिन बाद राकेश मुझे अपनी गाडी मे घर से लेने आया । मैनें जाने से मना कर दिया तो राकेश नें भरोसा दिया कि यह राज हम दोनों के अलावा किसी और को कभी पता भी नहीं चलेगा । फ़िर कुछ दिनों में हम दोनों शादी कर लेंगे ।
लेकिन मेरा तो कोई भी नहीं और तुम्हारे घर वाले क्या हमारी शादी के लिए राजी होंगे ।
मैं हूं न फ़िर घर वालों को तो मैं मना ही लूंगा । पिताजी की अकेली संतान हूं , भला वो मेरी बात नहीं मानेंगे
तो किसकी मानेंगे ।
मैनें फ़िर से राकेश पर भरोसा कर लिया । कुछ दिन बाद उस रात का परिणाम सामने था मेरे पास मेरे अपने ही पेट में । कितनी बेबस थी मैं कि अपने ही शरीर से उस निशान को नहीं मिटा पा रही थी , जो हर पल मेरी आत्मा को घायल करता ।
मैं राकेश को शादी के लिए मनाने लगी और राकेश हर बार बात को टाल देता । मैं उसकी टाल-मटोल और नहीं सुन सकती थी , सो मैनें अबार्शन करवाने का फ़ैसला कर लिया तो राकेश नें मंदिर में ले जाकर मेरे गले में मंगलसूत्र और मांग में चुटकी सिन्दूर डाल सुहागिन होने का ठप्पा मेरे माथे पर लगा दिया ।
राकेश नें मुझसे मंदिर में भगवान को साक्षी मानकर शादी तो कर ली लेकिन यह बात तब तक छुपाकर रखने को कहा जब तक वह अपने पिताजी को हमारी शादी के लिए मना नहीं लेता । अब मैं भी बेफ़िक्र हो गई थी । भले ही किसी नें न देखा लेकिन मंदिर में बैठने वाला भगवान तो सबकुछ देखता है , यही हमें सिखाया गया था बचपन में और उसी भगवान भरोसे मैं राकेश को पति परमेश्वर मान चुकी थी और राकेश को अपनी जुबान बंद रखने का वादा भी किया था ।
मैनें अपना वादा निभाया भी , अपनी जुबान बंद रखी लेकिन उस पेट को कैसे छुपाती जो हर नए दिन के साथ नया रूप ले रहा था , मुझे देखते ही आफ़िस में कानाफ़ूसी शुरु हो जाती । धीरे-धीरे बात घर से निकल आफ़िस गली-मुहल्ले क्या पूरे शहर में फ़ैल चुकी थी और मैं इन सब बातों से अनजान ।
मुझे यह समझ नहीं आया कि राकेश का मैनें अपनी जुबान से कभी किसी के सामने जिक्र तक न किया था , फ़िर उसके साथ मेरे संबंधों की चर्चा फ़ैली कैसे ? क्या राकेश नें ही सबके सामने .....?
नहीं नहीं वो ऐसा नहीं कर सकता , स्वयं को ही तस्सली देने पर मजबूर थी । लेकिन दिन भर इतनी सारी शक्की निगाहों का सामना करते-करते मेरा विश्वास भी घायल होने लगा था और यह सब तब हुआ जब मैं बुरी तरह से फ़ंस चुकी थी , तीर मेरे हाथ से निकल चुका था । राकेश सांप बन कर मुझे डस चुका था और मैं खाली लकीर पीट्ने को मजबूर थी , इसके अलावा कोई चारा भी न था । अपनी ही बेवकूफ़ी पर आंसू बहा स्वयं पोछने पर मजबूर थी ।
पर तुम तो इतनी कमजोर न थी । जिसे देखकर कालेज में लडके आंख उठाकर देखने का साहस न करते थे , वह इतनी लाचार और बेबस कैसे हो सकती है ? तुम क्या हो ? यह अभी तक मै नहीं समझ पाई हूं ? तुम वो थी जो कालेज में बोल्ड गर्ल के नाम से जानी जाती थी या फ़िर ... ये हो कमजोर , लाचार , बेबस और अपनी मजबूरी का रोना रोने वाली ।
पता नहीं .....। मुझे उस से यह बनाने में मैं स्वयं जिम्मेदार हूं या फ़िर हालात ।
हालात का रोना क्यों रोती हो ? मुझेसे रहा न गया .... वह तो अपने बनाए होते हैं ? क्या तुम अंदर से इतनी कमजोर थी कि एक ही झटके से टूट गई , इस तरह कि तुम्हारा अपना कोई अस्तित्त्व ही नहीं रहा ? क्या हालात इंसान को इतना मजबूर कर सकते हैं कि बिना किसी सहारे अपने दम पर जी ही न सको ? क्या एक पढी-लिखी कमाऊ लडकी आत्म-निर्भर नहीं हो सकती ? क्या तुम्हारे पिताजी नें तुम्हें इसलिए पढाया कि तुम अपनी ही सोच में गिर जाओ , नहीं इसलिए पढाया कि तुम दुनिया का और किसी भी हालात का सामना समझदारी से कर सको । क्या तुम नहीं जानती थी कि दुनिया कितनी स्वार्थी है ? जब तुम्हारे अपने भाई पैसों की खातिर तुम्हारा साथ छोड गए तो फ़िर तुम उस इंसान पर कैसे भरोसा कर सकती हो , जिसे तुमने कभी जाना ही नहीं ? मैं बोलती जा रही थी । न जाने अब मुझे नलिनी पर दया नहीं गुस्सा क्यों आ रहा था ? और मैं यह भी भूल चुकी थी कि वह इस वक्त मन पर मनों बोझ लिए मेरे घर पर अपनी विश्वस्नीय सहेली के पास है । मैं भूल गई थी कि वर्षों से उसनें कितना कुछ अपने सीने में दफ़न कर रखा है , जो ज्वालामुखी बनकर फ़ूट जाना चाहता है और उसकी कुंठाग्रस्त भावनाएं लावा बनकर बह जाने के लिए हलचल मचा रही हैं । मेरे कुछेक शब्दों नें उस पर हथौडे सा प्रहार किया और वह फ़ूट-फ़ूट कर रोने लगी ।
क्रमश:
बुधवार, 14 अप्रैल 2010
चुभन-भाग ३
चुभन - भाग २
राकेश में न जाने ऐसा कौन सा आकर्षण था कि उसके सामने मेरी सारी समझ फ़ीकी पड जाती , मेरा आत्म-विश्वास मेरा साथ छोड जाता और उसकी हर बात के आगे मैं झुकती चली जाती । अब राकेश मुझे अपने साथ ले जाने लगा था और मैं तो थी ही आज़ाद परिन्दा , जिसके पर काट्ने वाला घर में कोई न था , जिसकी न तो किसी को फ़िक्र थी और न ही इंतज़ार । मैं कहां रहुं , कहां जाऊं , किससे संबंध रखुं किससे नही , इसकी परवाह किसी को न थी सो बिना कुछ विचार किए मैं राकेश के साथ बेझिझक जाने लगी । यह पारिवारिक व्यवस्था भी क्या चीज है , हम आज़ाद होते हुए भी आज़ाद नहीं होते , हर समय किसी न किसी का फ़िक्र , डर मन में समाया ही रहता है । हम आज़ाद पैदा हुए हैं तो हमें आज़ादी से जीने का अधिकार क्यों नहीं ? क्यों इतनी सारी बंदिशें हमें ऐसे घेरे रखती हैं कि हमारा अपना अस्तित्त्व ही नहीं रहता । लेकिन मैं तो आज़ाद थी फ़िर भी अंदर से किसी कोने से टीस उठती और उसे मैं दबा लेती । मैं तो आज़ाद हो चुकी थी फ़िर क्यों मैं जान-बूझ कर उस बंधन में फ़िर से बंधती जा रही थी । मुझे राकेश की फ़िक्र होने लगी थी ।
एक दिन रात के समय बरसात का मौसम और राकेश मेरे घर आ पहुंचा । यूं रात के समय राकेश का मुझे घर आना अच्छा तो न लगा लेकिन जब उसने बताया कि यहीं आस-पास उसकी गाडी खराब हो गई है और उसे घर जाने के लिए और कोई साधन नहीं मिला तो मैं उसे अंदर आने से मना न कर पाई । उसके कपडे भीग चुके थे । मैनें उसे पिताजी के पुराने कपडे पहनने को दिए और उन्हीं का कमरा राकेश को खोलकर दे दिया और अपने कमरे में सोने चली गई । मुझे नींद आ गई और नींद में ही मुझे अपने कमरे में किसी की आहट सुनाई दी । जब तक मैं कुछ समझ पाती राकेश नें अपना हाथ मेरे मुंह पर रख दिया और मैं चाह कर भी उसका विरोध न कर पाई । उसका स्पर्श मेरे अंतर्मन को घायल कर रहा था । मैं जानती थी कि जो हो रहा है गलत है ,मैं कैसे अपना कुंवारापन किसी के हाथों ऐसे ही सौंप दूं , लेकिन अपने मन की बात को न तो मैं जुबान पर ला पाई और न ही उसे अपने से दूर कर पाई । वह मुझे ऐसे निचोड रहा था जैसे अपनी किसी पुरानी कमीज़ को धोकर सुखाने के लिए डालना हो और मैं निचुड रही थी । पता नहीं अपना सबकुछ लुटा कर भी मुझे उस दिन नींद कैसे आ गई थी और सुबह जब आंख खुली तो राकेश जा चुका था ,अपनी शक्ल देखते हुए शर्म आ रही थी । मैं इतना कैसे गिर सकती हूं , लेकिन मैं तो गिर चुकी थी । ऐसा अनुभव हुआ कि रात की ऐसी कहानी जिसका और कोई गवाह न था ,मेरे अपने ही चेहरे पर लिखी हुई है और कोई भी उसे आसानी से पढ सकता है । पानी का नल खुला छोड जी भर रोई इतना कि शायद आंसुओं से मेरा पाप धुल जाए , शायद वो कलंक मिट जाए जिसे रात के स्याह अंधेरे में स्वयं अपने ही माथे लगा लिया था । दो-तीन दिन तक आफ़िस न गई कि कहीं मेरा भेद खुल ही न जाए । लेकिन कहते हैं न कि जिस चीज को ज्यादा दबाया जाए वह धमाके के साथ फ़ूटती है ।मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ । मैनें भी उस रात की कहानी को अपने सीने में दफ़न कर लिया लेकिन एक चिंगारी बम की भांति धमाका कर फ़ूटेगी ऐसा मैने न सोचा था ।
क्रमश: