मंगलवार, 4 अप्रैल 2023

मुट्ठी में भगवान् - स्व-अनुभव

 

सौभाग्य से मुझे इस सप्ताह हमारे प्रिय कान्हा की नगरी वृन्दावन जाने का सुअवसर मिला। वह पावन धरती ही ऐसी है कि आप स्व आकर्षित हो ही जाते हैं। जो एक बार जाता है बस वहीं का होकर रह जाता है। क्यों ? ये तो वही मुरलीवाला ही जाने। वहां पर लोगों की भीड़ और श्रद्धा देखकर ऐसा लगा कि पूरा भारत बस यहीं बसता है।हजारों नहीं , लाखों लोगों की भीड़ वहां समा कैसे जाती है ? पता नहीं ! भक्ति भाव , समर्पण , विश्वास, त्याग, श्रद्धा का अनूठा संगम दिखता है इस नगरी में। मेरी माँ, जिसकी सदैव इच्छा होती है - वृन्दावन जाने की। कभी कहीं और जाने की बात ही नहीं करती और कभी हम बात करें भी तो उनका मन ही नहीं मानता। अभी हमारी छुट्टी चल रही है , माँ की इच्छा थी और हमारे कान्हा की कृपा तो हमने भी अपना बैग पैक कर लिया। भीड़ तो इतनी थी कि बस पूछिए ही मत और जो भाव था हर मन में , उसके लिए तो कोई शब्द हैं ही नहीं। हम भी भीड़-भाड़ को चीरते हुए आगे निकले। खैर , सोमवार ०३-०४-२०२३ को हमने वृन्दावन में बहुत सारे मंदिरों के दर्शन किये और आखिर में हम गोपेश्वर मंदिर पहुंचे।मंदिर में बस पुजारी जी थे और हम जैसे ही पहुंचे , मंदिर के द्वार बंद। मुझे और मेरी बहन को एक झलक दिखाई दी और मेरी माँ को वो भी नहीं। हमारे पहुँचने से पहले मंदिर बंद हो गया होता तो शायद हमें इतना बुरा नहीं लगता yaa फिर मेरी माँ ne भी एक झलक दर्शन कर लिए hote तो भी संतुष्ट हो जाते। मुझे सच में बहुत बुरा लगा। l
लेकिन भगवान् की इच्छा मानकर हमने देहरी पर ही प्रणाम किया | इतने में पुजारी जी ने आकर कहा कि- इस समय भगवान् के विश्राम का समय है , इसलिए मंदिर के बाहर लगी घंटी नहीं बजाना, हम सामान्य इंसान हैं और इस मामले में सभ्य और अनुशासित भी और हमने हाथ जोड़कर इसको स्वीकार भी कर लिया | जैसे ही हम बाहर जाने को मुड़े , हमारे पीछे पुजारी जी भी मंदिर को ताला लगाकर बाहर जा रहे थे | हम आगे और पुजारी जी हमारे पीछे | इतने में एक बन्दर आया और पुजारी जी का चश्मा लेकर नौ -दो ग्यारह | पता तब चला जब पुजारी जी ने उस नासमझ जीव को अपनी भाषा में बुरा-भला बोल दिया | बन्दर की एक खासियत है कि आपकी चीज तभी लौटाएंगे , जब उनको कुछ खाने के लिए दिया जाए | पुजारी जी को अपना चश्मा चाहिए था और बन्दर को खाना | बिना खाना लिए बन्दर न मानने वाला था , ये बात पुजारी जी अच्छी तरह जानते थे | उन्होंने बन्दर की पेट पूजा के मंदिर का द्वार खोल अंदर से पूजा में चढ़ाया गया फल लेने का निश्चय किया और बिना सोचे चाबी निकाली और मंदिर का दरवाजा खोल दिया | हमें तो जैसे मुंह माँगा वरदान मिल गया हो | जैसे ही पुजारी जी ने दरवाज़ा खोला , हमने अच्छे से दर्शन किये और मन ही मन बन्दर को धन्यवाद भी दिया | ये भोलेनाथ की कृपा थी कि बहाने से ही सही लेकिन मंदिर खुला और हम बिना दर्शन के नहीं लौटे |हम सच में प्रसन्न थे और पुजारी जी का चेहरा देखकर हँसने पर मजबूर भी | पुजारी जी बिना हमारी तरफ देखे अपना चश्मा पाने की कोशिश कर रहे थे , हम दर्शन कर रहे थे और जब तक पुजारी जी फल लेकर बदंर जी से समझौता करते , बन्दर महाश्य चश्मे का पोस्ट-मार्टम कर चुके थे , हाँ उसके बदले उसको अपना मेहनताना अवश्य मिल गया था | उस समय हमारी हंसी का ठिकाना न था | बन्दर महाश्य ने अपना पेट भरा , हमने दर्शन किये और पुजारी जी अपने टूटे हुए चश्मे को टुकुर-टुकुर देख रहे थे | उस दिन हम इतना खुलकर हँसे कि हमारे पेट में बल पड़ने लगे | लेकिन इसी बीच ये भी सोचने पर मजबूर थे कि एक मिनट पहले जो पुजारी जी भगवान् के विश्राम-समय का वास्ता देकर हमें मंदिर के बाहर लगी घंटी को न बजाने की बात कह रहे थे , जिसे हमने श्रद्धा-पूर्वक मान भी लिया था , उसी ने अपने तुच्छ से चश्मे की खातिर भगवान् के विश्राम में विघ्न डाल दिया | ऐसा लगा मानो भगवान् इनकी मुट्ठी में हैं |
"करलो दुनिया मुट्ठी में' तो संभव है लेकिन किसी की 'मुट्ठी में भगवान्' ये पहली बार महसूस हुआ।

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