रविवार, 9 जुलाई 2023

ज्योतिर्लोक

 ज्योतिर्लोक

ज्योति बेटा, बाहर कचरे वाला आया है , ज़रा कचरादान तो बाहर रखदो।
माँ, मेरे एग्जाम हैं और पढ़ रही हूँ , आप ही रख दो ना।
हर समय पढ़ाई , पढ़ाई। कभी घर के काम में भी हाथ बंटा दिया कर। मैं अकेली क्या-क्या सम्भालूं। अभी खेतों में जाकर बुआई में भी हाथ बंटाना है। कहते-कहते माँ ने एक युवक के हाथ में कचरादान थमा दिया।
माँ जी , अगर पानी मिल जाता तो
रुको, अभी लाई
युवक ने पानी पिया और एक आकर्षक सी मुस्कराहट के साथ आगे निकल लिया। न जाने क्यों माँ को वह युवक दूसरों से अलग दिखा।
थोड़े दिन में माँ के मन में युवक के प्रति ममता जागने लगी। अब पानी के साथ-साथ चाय भी पूछी जाने लगी।
युवक घर में झांकने लगा।
और एक दिन
ज्योति , ऊपर से सूखे कपडे उतार लाना नहीं तो बरसात में भीग जाएंगे।
जी माँ
झमझम बारिश और सारी फसलें तबाह। किसान की सारी की सारी मेहनत गयी मिट्टी में। परिवार में जैसे मातम का माहौल छा गया हो।
युवक ने फिर से दरवाजे पर दस्तक दी। क्या हुआ माँ जी , आप कुछ परेशान दिख रही हैं।
हाँ बेटा ,सोचा था , फसल अच्छी होगी, इस साल बेटी की पढ़ाई भी पूरी हो जाएगी तो उसके हाथ पीले कर गंगा नहा लेंगे , लेकिन कुदरत का कहर....
फ़िक्र मत कीजिए माँ जी , आपकी बेटी लाखों में एक है , उसके लिए अच्छा वर मिल ही जाएगा और रही फसल की बात , तो आप कह तो ठीक ही रही हैं। किसान कड़कती दोपहरी में और रात के कोहरे में दिन-रात मेहनत करता है और कुदरत कब उसकी मेहनत को मिट्टी में मिला दे, सब किस्मत का खेल है माँ जी।
अब हमें देखिए , आंधी , तूफ़ान ,बारिश कुछ भी हो जाए , हमारी तनख्वाह तो पक्की। दुनिया भले ही इधर की उधर हो जाए, हमारा खर्चा तो चलता ही रहता है। ऊपर से सरकारी नौकर है तो तरह-तरह की सुविधाएँ। दो वक्त की रोटी के लिए हाथ नहीं फैलाना पड़ता। और तो और इससे हमारा परिवार भी सुरक्षित। जीवन भर तनख्वाह लो , रिटायरमेंट के बाद पेंशन , मरने के बाद पत्नी को आजीवन पेंशन और अगर किस्मत से रिटायरमेंट से पहले भगवान को प्यारे हो गए , तो भी कोई चिंता नहीं , पत्नी को पेंशन और बच्चे को बिना मेहनत सरकारी नौकरी पक्की। हमारे तो दोनों हाथों में लड्डू रहते हैं माँ जी।
कहते -कहते युवक की नज़रें घर के आँगन में टहलती ज्योति पर टिकी रहीं।
न जाने क्यों , आज युवक की बातों ने माँ के दिल को अजीब सी तसल्ली दी थी।
न चाहते हुए भी वह दिन भर उसी की बातें सोचती रही। आखिर न रहा गया ...
मैं कहती हूँ , आखिर जमींदारी में रखा क्या है ? दिखावे की जिंदगी जीते-जीते क़र्ज़ के बोझ तले दबते जाते हैं। झूठी शानो-शौकत के चक्कर में कर्जे का बोझ ढोए रहते हैं और विरासत में वही क़र्ज़ अपनी औलाद के कन्धों पर लादकर दुनिया को अलविदा कह देते हैं और ये सब पीढ़ी दर पीढ़ी चलता ही रहता है।
आखिर तुम कहना क्या चाहती हो, ज्योति के पिता ने झल्लाकर कहा।
बेटी के हाथ पीले करने हैं , फसल खराब हो चुकी है , कब तक उसे घर में बैठा कर रखेंगे।
बात तो तुम्हारी ठीक है परन्तु कोई ढंग का लड़का मिलना भी तो चाहिए , जो हमारी ज्योति जैसा पढ़ा-लिखा , खानदानी जमींदार और समझदार हो।
अरे पढ़ाई-लिखाई गयी भाड़ में और जमींदार का हाल तो तुम देख ही रहे हो। मैं तो कहती हूँ , बस इस साल बेटी को विदा करदो तो जिंदगी के चार दिन सुख के हम भी जी लेंगे।
बात तो तुम्हारी ठीक है पर पहले ही क़र्ज़ और फिर दहेज़.....
अरे तुम उसकी चिंता छोड़ो (माँ ने बीच में ही टोकते हुए कहा)। मेरी नज़र में है एक लड़का , जो खुशी-खुशी मान भी जाएगा और हमारी बेटी हमारी तरह सारी उम्र क़र्ज़ के बोझ में नहीं बिताएगी।
कौन है वो (पिता ने उत्साहपूर्वक पूछा)
आलोक
आलोक , कौन आलोक ?
अरे वही जो रोज कचरा उठाने आता है।
तुम्हारा दिमाग तो ठीक है , हम ठहरे जंमींदार और वो चतुर्थ श्रेणी। हमारी बेटी बी ए पास और वो आठवीं फ़ैल।
तो क्या हुआ (माँ ने बीच में ही टोका ) , कमाता तो है। बेटी भूखी तो नहीं मरेगी और फिर वही सारी बातें , जो आज ही आलोक ने माँ के दिमाग में घुसा दी थी। अब माँ की बातें पिता को भी लुभाने लगीं।
ठीक है , तुम्हे अच्छा लगता है तो उससे बात करके देखलो।
ज्योति चुपके से माँ-पिता की सारी बात सुन रही थी, चाहती थी विरोध करना, चाहती थी ये कहना कि मुझे अभी पढ़ना है , कुछ बनना है , चाहती थी कहना कि बेटी हूँ बोझ नहीं और चाहती थी कहना कि मुझे समय दीजिए , मैं आपके सारे क़र्ज़ चुका दूंगी किन्तु ये सारी बातें मन में ही रह गईं। घर के हालात , मौसम की मार और माँ की जिद्द ने जैसे उसके होंठ सिल दिए थे। कोई न था उसे समझने वाला और माँ बाप को समझाने वाला। कहती भी तो किससे , बस खून के आँसू पी गयी।
तय हुआ कि शादी के बाद दोनों किसी दूसरे शहर में रहेंगे। आलोक सरकारी नौकर है अपना तबादला करवा लेगा और किसी को भनक तक न लगेगी कि दामाद चतुर्थ श्रेणी कर्मी है। समाज में इज्जत भी रह जाएगी और बेटी भी भूखी न मरेगी।
शादी हुई , दूसरे शहर में भी बस गए, सब पीछे छूट गया किन्तु कुछ नहीं छूटा था तो ज्योति का किताबों के प्रति मोह। रह रहकर जीवन में कुछ बनाने का सपना ज्योति को सोने नहीं देता।
आलोक से कभी विचार न मिलते किन्तु मजबूरी उसे उस इंसान के साथ रहने को मजबूर कर देती जिसकी सोच उससे कभी न मिली। सब कुछ सहते हुए भी एक आदर्श बेटी बनने पर मजबूर थी। नहीं चाहती थी कि अपने माँ-बाप पर फिर से बोझ बन जाए। बस चुपचाप सहती गयी।
उधर आलोक ने शादी तो करली लेकिन पढ़ी-लिखी समझदार पत्नी से उम्मीद करता कि वह दिनभर माँ-बाप की सेवा करे , उसके पैर दबाए और हर काम उसकी मर्जी से करे। ज्योति की आज़ाद सोच से उसके मन में असुरक्षा का भाव आने लगा , वह ज्योति को शक्की नज़र से देखता और अपनी भड़ास निकालने के लिए उस पर चरित्रहीन होने जैसे कटु वाक्यों का प्रहार करता।
ऐसा पुरुष जो अपनी पत्नी का मुकाबला न कर सकता हो के पास दो हथियार होते है और वो है पत्नी को चरित्रहीन बोल दो , बस दब कर रहेगी और दूसरा उसके माँ-बाप को गाली निकाल कर उसकी आत्मा की गहराई तक ऐसा वार करो कि वह टूटकर बिखर जाए। और औरत की यह कमजोरी कि वह सब सह जाती है किन्तु माँ- बाप के लिए अपशब्द और चरित्रहीनता का आरोप नहीं सह पाती। सबसे बड़ी त्रासदी यही है कि ज्यादातर औरतों को यह सब सुनना और सहना पड़ता है।
घर के पास महिलाओं के लिए मुफ्त शिक्षण केंद्र देखा तो सपने फिर से जीवित होने लगे। सुबह घर का काम निपटाती और आलोक के ड्यूटी पर जाने के साथ ज्योति लग जाती अपने सपनों की उड़ान को पंख देने।
सोचती , कुछ बनकर अपने माँ- बाप को क़र्ज़ से मुक्ति दिलाएगी और आखिर उसकी मेहनत रंग लाई और वो दिन भी आया जब ज्योति ने अफसर बनकर दुनिया भर की लड़कियों के लिए एक मिसाल कायम करदी।
ज्योति का सपना साकार हुआ था , पूरी दुनिया उसके स्वागत में बाहें फैलाए खड़ी थी। जगह-जगह उसे सम्मानित किया जा रहा था , सामाजिक रूतबा ऐसा कि अमीर से अमीर भी उसके सम्मान में कोई कमी न छोड़ते। नाम, दाम और पदवी ने जैसे ज्योति में नई ताकत फूंक दी थी। काम के प्रति समर्पित ज्योति सफलता की सीढ़ियां चढ़ने लगी।
उधर आलोक अपने आपको असहाय और अकेला महसूस करने लगा।जो पत्नी सुबह-शाम गाली खाकर और प्रताड़ित होकर भी पति की हर जरूरत और इच्छा का ध्यान रखती , पढ़ी-लिखी होने के बावजूद भी जिसे बेवकूफ समझा जाता , पौरुष दिखाया जाता , जिसको जब चाहे धिक्कारा जाता, जिसकी अहमियत घर में नौकरानी के अलावा और कुछ न थी , आज वह बड़ी-बड़ी मीटिंगों में जा रही थी , समस्याएँ सुलझा रही थी , समाज में नाम कमा रही थी , पैसा और पदवी जिसके कदमो तले थे, जिसे लोग उसके कर्म से पहचानने लगे थे और जिसके पास समय ही न था कि किसी गाली गलौच को सुने और रात-रातभर आंसू बहाकर सुबह परिवार की सेवा में जुट जाए।अब उसके परिवार को उसके नाम से पहचाना जाने लगा था। जिसकी अपने घर में कोइ पहचान न थी , उसे दुनिया पहचानने लगी थी।
यह सब आलोक के लिए असहनीय था , वह समझ ही न पा रहा था कि ज्योति की जिंदगी में क्या बदलाव आ चुका है। वह उसकी जिम्मेदारियों से अनभिज्ञ बस आत्मग्लानि की पीड़ा से दुखी रहने लगा। खुद में इतनी क्षमता न थी कि मेहनत करके पत्नी के बराबर खड़ा हो जाए या वह भी वह मुकाम हासिल करले जो उसकी पत्नी ने किया। पुरुषवादी अहं दिनों दिन आत्मा पर बोझ बनता जा रहा था। अपनी ही पत्नी की इज्जत और पदवी उसके लिए असहनीय होती जा रही थी। उसकी उम्मीदें अब भी वही थी कि जिस तरह घर के हर काम में उसकी सलाह ली जाती है , उसी तरह कार्यालय के काम में भी उसको अहमियत मिले। यह समझने को तैयार नहीं था कि वास्तव में ऐसा संभव नहीं है। बस चार दोस्त और रिश्तेदार जब भी बोलते कि तुम्हारी पत्नी तो बड़ी अफसर है तो आलोक की आत्मा घायल हो जाती।
घर में झगड़े बढ़ने लगे। अब ज्योति वो ज्योति न थी जो हिंसा को चुपचाप सह जाती। अब उसकी पहचान थी और उसमें हिम्मत आ चुकी थी सामना करने की। आखिर एक दिन तंग आकर ज्योति ने इस रोज रोज की झंझट से छुटकारा पाने के लिए अलग होने का फैसला कर लिया। आलोक के पैरों तले से जमीन खिसक गयी। अहसास हुआ , जैसे सोने कि खदान उसके हाथ से मुट्ठी में रेत की तरह खिसक रही है। पत्नी के कारण जो पहचान , सम्मान , पैसा उसे मिल रहा है ,सब छिन जाएगा , आव देखा न ताव , अपनी पारिवारिक कलह को दुनिया के सामने तार-तार कर दिया।
लोग चटकारे ले-लेकर मजाक बनाने लगे।अपनी-अपनी पत्नियों पर शक करने लगे , उन पर पाबंदियां लगाने लगे , समाज में औरत जात पर उंगलियां उठने लगी , आलोक रो-रोकर अपना दुखड़ा सुनाता। पुरुषवादी समाज को एक उदाहरण मिल गया था ,औरत की बुराई करने का।बिना जाने आलोक और ज्योति को अपनी जिंदगी से जोड़ दिया गया ,लोग अपना समय बर्बाद कर रहे थे और न जाने इस पारिवारिक कलह में इतनी ज्यादा रूचि क्यों ले रहे थे , हर पुरुष को अपने से ज्यादा पढ़ी-लिखी पत्नी ज्योति ही नज़र आने लगी थी। पुरुष समाज अपने आपको असुरक्षित महसूस करने लगा था और एक बार फिर से औरत को घर में बैठा कर रखने का बहाना मिल गया था। और इस सबमें कोई चुपचाप ये सारी हरकतें देख रहा था और बिना किसी प्रतिक्रया के क़ानून के भरोसे बैठा था और वो थी ज्योति।
Note: यह काल्पनिक कहानी है और वास्तविकता से इसका कोइ सम्बन्ध नहीं है।

बुधवार, 5 अप्रैल 2023

भक्त के वश भगवान्

 भक्त के वश भगवान् 


मेरा एक अनुभव " मुट्ठी में भगवान् " और दूसरा " भक्तों के बस में भगवान्' | जिसे मैं लिखने पर मजबूर हूँ | सोमवार दिनांक ०३-०४-२०२३ , समय सुबह ५:३० बजे | हम नहा धोकर कमरे से बाहर निकले ताकि सुबह-सुबह श्री राधा-वल्लभ जी की आरती के दर्शन हो जाएंगे | हमने बाहर निकलकर इस्कॉन मंदिर के पास एक ई-रिक्शा किया , जिसमें पहले से ही एक अधेड़ उम्र की औरत बैठी थी और बांके बिहारी जी के दर्शनार्थ निकली थी | वह मुम्बई से थी | बातचीत में उसने बताया  कि वह तीन  दिन से वृन्दावन में है और अपने बुजुर्ग माता-पिता को यात्रा करवाने आई है | कहते-कहते उसकी आँखें छलक आईं कि इतनी भीड़ के चलते वह बिहारी जी के दर्शन नहीं कर पाई और आज सुबह- सुबह इसलिए जा रही हूँ क्योंकि आज हमारी वापसी है और मैं देहरी पर प्रणाम करने अपनी हाजिरी लगाकर चली जाऊंगी, इतनी भीड़ में माता-पिता को नहीं ला सकती |  भीड़ वास्तव में बहुत  ज्यादा थी | इतने में बांके बिहारी जी मंदिर वाली गली में ई-रिक्शा वाले ने हमें यह कह कर उतार दिया कि इससे आगे वह नहीं जा पायेगा | सुबह का समय था और सोमवार को भीड़ भी थोड़ी कम हो चुकी थी | हम जैसे ही उतरे , वह बिहारी जी मंदिर वाली गली में मुड़ने लगे और न जाने क्यों मैंने कह दिया कि , इस समय तो मंदिर खुला नहीं है , आपको दर्शन न हो पाएंगे , आप हमारे साथ राधा-वल्लभ जी के दर्शन कीजिये और हमारे साथ वापिस आकर बिहारी जी के दर्शन कर लेना , क्योंकि हमने भी वहीं आना था | वह एक बार झिझकी और फिर मुझे देखकर बोली , 'क्या आप मेरे साथ रहेंगी ?' मैंने भी हाँ बोल दिया और इससे मुझे कोई फर्क भी नहीं पड़ता था | वह हमारे साथ हो ली | हमने राधा-वल्लभ जी की आरती के दर्शन किए और फिर सेवा-कुञ्ज में | बाद में जब बिहारी जी मंदिर पहुंचे तो हमें काफी पीछे लाइन में लगना पड़ा और देखते ही देखते हमारे पीछे कुछ ही मिनटों में लम्बी लाइनें लग गईं | अब हम बीच में थे | वह औरत लगातार मेरा हाथ पकडे थी , मैं माँ का और मेरी माँ मेरी बहन का ताकि भीड़ में हम कहीं इधर-उधर न हो जाएँ | तय था कि एक दूसरे का हाथ नहीं छोड़ेंगे | आखिर हम मंदिर के अंदर पहुँच ही गए , बिहारी जी के दर्शन किए | मुश्किल तो हुई लेकिन मन गदगद हो उठा | इतनी भीड़ में हमारे लिए मंदिर के अंदर प्रवेश करना अपने आप में एक चमत्कार था | जैसे ही दर्शन करके बाहर निकले , उस औरत की आँखे नम हो उठीं और न जाने कितनी बार उसने हमें धन्यवाद बोला और साथ ही यह भी कहा कि मैं पहली बार यहां आई हूँ , आपके साथ जो दर्शन किए , वह न तो मुझे पता था और न ही मेरे लिए संभव था | हमें सुनके असहज लगा क्योंकि उसकी सहायता हम नहीं स्वयं बिहारी जी कर रहे थे , हम तो बस एक माध्यम थे | फिर भी, हम भी प्रसन्न थे और सोच रहे थे कि -श्रद्धा है तो भगवान् किसी भी रूप में कोई न कोई सहारा बना ही देते हैं | वह घर से निकल पडी थी भगवान् के भरोसे -बिना किसी उम्मीद के और जा रही थी भारी मन से | दर्शनोपरांत उसका मन प्रसन्न था और मन का बोझ अश्रुधारा बनकर बह चुका था | इस बार मैंने उसे अश्रु बहाने से नहीं रोका क्योंकि वो प्रेम के अश्रु थे , जिससे  मन निर्मल होता है और ऐसी पवित्र भाव-धारा को बहने से मैं रोकना नहीं चाहती थी |

इस सब के बाद वह चली गयी और बाद में याद आया कि न उसने हमसे हमारा नाम पुछा और न ही हमने | मैं उसका नाम तक नहीं जानती किन्तु इतना अवश्य अनुभव किया कि भगवान भक्तों के वश में हैं बस जरूरत है तो सच्ची श्रद्धा की |

मंगलवार, 4 अप्रैल 2023

मुट्ठी में भगवान् - स्व-अनुभव

 

सौभाग्य से मुझे इस सप्ताह हमारे प्रिय कान्हा की नगरी वृन्दावन जाने का सुअवसर मिला। वह पावन धरती ही ऐसी है कि आप स्व आकर्षित हो ही जाते हैं। जो एक बार जाता है बस वहीं का होकर रह जाता है। क्यों ? ये तो वही मुरलीवाला ही जाने। वहां पर लोगों की भीड़ और श्रद्धा देखकर ऐसा लगा कि पूरा भारत बस यहीं बसता है।हजारों नहीं , लाखों लोगों की भीड़ वहां समा कैसे जाती है ? पता नहीं ! भक्ति भाव , समर्पण , विश्वास, त्याग, श्रद्धा का अनूठा संगम दिखता है इस नगरी में। मेरी माँ, जिसकी सदैव इच्छा होती है - वृन्दावन जाने की। कभी कहीं और जाने की बात ही नहीं करती और कभी हम बात करें भी तो उनका मन ही नहीं मानता। अभी हमारी छुट्टी चल रही है , माँ की इच्छा थी और हमारे कान्हा की कृपा तो हमने भी अपना बैग पैक कर लिया। भीड़ तो इतनी थी कि बस पूछिए ही मत और जो भाव था हर मन में , उसके लिए तो कोई शब्द हैं ही नहीं। हम भी भीड़-भाड़ को चीरते हुए आगे निकले। खैर , सोमवार ०३-०४-२०२३ को हमने वृन्दावन में बहुत सारे मंदिरों के दर्शन किये और आखिर में हम गोपेश्वर मंदिर पहुंचे।मंदिर में बस पुजारी जी थे और हम जैसे ही पहुंचे , मंदिर के द्वार बंद। मुझे और मेरी बहन को एक झलक दिखाई दी और मेरी माँ को वो भी नहीं। हमारे पहुँचने से पहले मंदिर बंद हो गया होता तो शायद हमें इतना बुरा नहीं लगता yaa फिर मेरी माँ ne भी एक झलक दर्शन कर लिए hote तो भी संतुष्ट हो जाते। मुझे सच में बहुत बुरा लगा। l
लेकिन भगवान् की इच्छा मानकर हमने देहरी पर ही प्रणाम किया | इतने में पुजारी जी ने आकर कहा कि- इस समय भगवान् के विश्राम का समय है , इसलिए मंदिर के बाहर लगी घंटी नहीं बजाना, हम सामान्य इंसान हैं और इस मामले में सभ्य और अनुशासित भी और हमने हाथ जोड़कर इसको स्वीकार भी कर लिया | जैसे ही हम बाहर जाने को मुड़े , हमारे पीछे पुजारी जी भी मंदिर को ताला लगाकर बाहर जा रहे थे | हम आगे और पुजारी जी हमारे पीछे | इतने में एक बन्दर आया और पुजारी जी का चश्मा लेकर नौ -दो ग्यारह | पता तब चला जब पुजारी जी ने उस नासमझ जीव को अपनी भाषा में बुरा-भला बोल दिया | बन्दर की एक खासियत है कि आपकी चीज तभी लौटाएंगे , जब उनको कुछ खाने के लिए दिया जाए | पुजारी जी को अपना चश्मा चाहिए था और बन्दर को खाना | बिना खाना लिए बन्दर न मानने वाला था , ये बात पुजारी जी अच्छी तरह जानते थे | उन्होंने बन्दर की पेट पूजा के मंदिर का द्वार खोल अंदर से पूजा में चढ़ाया गया फल लेने का निश्चय किया और बिना सोचे चाबी निकाली और मंदिर का दरवाजा खोल दिया | हमें तो जैसे मुंह माँगा वरदान मिल गया हो | जैसे ही पुजारी जी ने दरवाज़ा खोला , हमने अच्छे से दर्शन किये और मन ही मन बन्दर को धन्यवाद भी दिया | ये भोलेनाथ की कृपा थी कि बहाने से ही सही लेकिन मंदिर खुला और हम बिना दर्शन के नहीं लौटे |हम सच में प्रसन्न थे और पुजारी जी का चेहरा देखकर हँसने पर मजबूर भी | पुजारी जी बिना हमारी तरफ देखे अपना चश्मा पाने की कोशिश कर रहे थे , हम दर्शन कर रहे थे और जब तक पुजारी जी फल लेकर बदंर जी से समझौता करते , बन्दर महाश्य चश्मे का पोस्ट-मार्टम कर चुके थे , हाँ उसके बदले उसको अपना मेहनताना अवश्य मिल गया था | उस समय हमारी हंसी का ठिकाना न था | बन्दर महाश्य ने अपना पेट भरा , हमने दर्शन किये और पुजारी जी अपने टूटे हुए चश्मे को टुकुर-टुकुर देख रहे थे | उस दिन हम इतना खुलकर हँसे कि हमारे पेट में बल पड़ने लगे | लेकिन इसी बीच ये भी सोचने पर मजबूर थे कि एक मिनट पहले जो पुजारी जी भगवान् के विश्राम-समय का वास्ता देकर हमें मंदिर के बाहर लगी घंटी को न बजाने की बात कह रहे थे , जिसे हमने श्रद्धा-पूर्वक मान भी लिया था , उसी ने अपने तुच्छ से चश्मे की खातिर भगवान् के विश्राम में विघ्न डाल दिया | ऐसा लगा मानो भगवान् इनकी मुट्ठी में हैं |
"करलो दुनिया मुट्ठी में' तो संभव है लेकिन किसी की 'मुट्ठी में भगवान्' ये पहली बार महसूस हुआ।