शुक्रवार, 27 नवंबर 2009

60 रुपये की चोरी -2

60 रुपये की चोरी -1

अब तक तो मुझे भी सुनैना की आदत हो चुकी थी , जब तक हर रोज उसके मुंह से उसकी बातें नहीं सुन लेती मुझे चैन ही न मिलता ।लेकिन वह अपने घर में व्यस्त होगी सोचकर मैनें भी दो-तीन दिन तक नहीं बुलाया ।मैं नहीं चाहती थी कि वह अपने सास-ससुर को छोड मेरे पास आकर बैठे । दो-तीन दिन बाद (जब उसके सास-ससुर चले गये)मेरे सामने खड़ी बस रो रही थी
मुझे उसके रोने का कोई कारण समझ न आया । मैने पूछा तो बोली
"दीदी शादी में जाते समय सासू माँ ने मुझे अपना पर्स दिया था और उसमे कुछ रुपये थे"

मुझे लगा शायद वह पर्स किसी ने छीन लिया, दिल्ली जैसे शहर में यह आम बात है

बोली "नहीँ दीदी !पर्स किसी ने नहीँ छीना मुझे जैसा उन्होने दिया था, वैसा ही मैने लौटा दिया मुझे अजन्मे बच्चे की
कसम मैने उसे नहीँ खोला"

कसम खा कर मानो वह अपनी सफाई देना चाह रही थी और रोए जा रही थी
बात अभी भी मेरी समझ से बाहर थी , लेकिन उसकी बात जानने की जितनी उत्सुक्ता थी , उससे कहीं ज्यादा मुझे उसका रोना परेशान कर रहा था । इतना हंसने खेलने वाली सुनैना को इस तरह गिडगिडा कर रोते हुए मैने पहली बार देखा था । जैसे-तैसे पानी पिलाया और थोडा चुप कराया तो फ़िर उसने बताया
"सासू माँ ने सबके सामने मुझे बहुत बेइज्जत किया, उसने सबके सामने पर्स खोला और उसमें से रुपये गिनने लगी "और मुझसे बोली
"इसमें 60 रुपये कम हैं, पर्स तुम्हारे पास था तुम्हीं ने चोरी की है और मेरे पक्ष में कोई कुछ नहीँ बोला, मैने जब राजीव
से कहा तो उसने भी मेरी बात सुनने की बजाय मुझ पर हाथ उठाया और कहा "मेरी माँ झूठ क्यों बोलेगी, की
होगी तुम्हीं ने चोरी"

उसका रोना तो बंद ही नहीँ हो रहा था और मेरी तरफ ऐसे देख रही थी जैसे कहना चाहती हो "दीदी क्या आपके पास है मेरी बेगुनाही का सबूत"
मैं उसे बेगुनाह साबित कर सकूँ , मेरे पास ऐसा कोई सबूत नहीँ था
कितनी ही देर तक वह मुझसे चिपक कर रोती रही थी उनका पारिवारिक मसला समझ कर मैने सुनैना को समझाया अवश्य लेकिन फ़िर कभी न मैने न सुनैना नें ही उस विषय पर बात की ।

कुछ दिन बाद ही हमने दिल्ली छोड़ दिया और फिर कभी सुनैना से बात नहीँ हुई कुछ दिन पूरव ही मुझे दिल्ली जाने का अवसर मिला ,
मेरे पास कुछ खाली समय था तो मैं सुनैना से मिलने गई
क्या यह वही सुनैना है या मेरी आंखों का धोखा ?नहीँ ! मुझे अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीँ हो रहा था, केवल दो साल में ही वह कितना बदल गई है वह मुझे देख कर खुश तो हुई लेकिन वो झूठी खुशी ही लगी मुझे चेहरे पर नकली रौनक लाने का प्रयास कर रही थी कहाँ गई वो मासूमियत, खूबसूरती , आँखों की चमक और सपने ..............सब कुछ गायब था अपनी उम्र से कितनी ही बड़ी लग रही थी वो एक बहुत ही प्यारे से बच्चे को गोदी में लिए उसने मुझे फिर से इस तरह देखा मानो कहना चाह रही हो ............." दीदी मैं उस 60 रुपये की चोरी की सज़ा अब तक भुगत रही हूँ जो मैने कभी नहीँ की क्या आपके पास मेरी बेगुनाही का सबूत है"

सोमवार, 23 नवंबर 2009

60 रुपये की चोरी - 1

बात लगभग अढाई साल पुरानी है , हम दिल्ली में थे हमारे साथ वाले फलैट में एक नव-विवाहित पति-पत्नी रहते थे, नये ही आए थे और अभी केवल चार-पाँच माँह पूरव ही शादी हुई थी
हाथों में चमचमाता सफ़ेद- लाल रंग का चूडा , हरदम मेंहदी से रंगे हाथ , पैरों में पायल की छ्न-छन, कलियों सी नाजुक , फ़ूलों सी छटा बिखेरती , सुन्दर सी साडी में सजी सुनैना की शर्माती हुई कोमल सी मासूम आंखें अनायास ही किसी को भी अपनी ओर आकर्षित कर लेतीं । ईश्वर नें उसे रूप ही इतना सुन्दर दिया था कि कोई भी देखने वाला देखता ही रह जाता , और वह नव-विवाहित दुलहन आंखे झुका शर्म से जब हल्की सी मुस्कान चेहरे पर बिखेरती तो लगता कोई ताजा-ताजा कली चटक के फ़ूल अपना सौन्दर्य बिखेरने को बेताब है ।
उसके साथ एक अजीब सा रिश्ता बन गया था, वो मुझे दीदी कहती और मैं उसे सुनैना , क्योंकि उसकी आँखें बहुत खूबसूरत थी पति
राजीव किसी कंपनी में कंप्यूटर इंजीनियर था और सुनैना भी अध्यापिका थी बहुत खुश रहते दोनों ही हम दोनों ड्यूटी से आने के बाद
थोड़ा मन बहलाने के लिए बाहर सीढियों पर ही बैठ जाती और कितनी ही देर तक बातें करती सुनैना हरदम खुश रहती,
आँखों में अजीब सी चमक, ढेरों सपने और पति के लिए प्यार उसका चेहरा उसके मन के हर राज को खोल देता , और उसकी इतनी मासुमियत देखकर मै कभी-कभी मन ही मन दुआ करती कि कहीं किसी की नज़र न लगे ।उसकी खुशी उससे संभाले न संभलती थी और मै उसके हर राज की भागीदर बनकर एक दोसत और बडी बहन की भूमिका निभाती । न जाने ऐसा उसमें क्या था । क्यों
मैं उसे या फ़िर वो मुझे अपना समझती थी ।फ़िर भी हम जितना वक्त इक्कठी रहती मै स्वयं को छुपाने की कोशिश करती और वो अपनी हर बात जब तक मुझे बता न देती , तब तक उसकी बातें खत्म ही न होतीं ।
कभी-कभी सुनैना मुझे स्वार्थी सी भी लगती , शायद इसलिए कि उसने कभी मेरे अंदर झांकने का प्रयास ही नहीं किया लेकिन अगले ही पल मैं स्वयं को कोसती भी कि शायद मैं ही अपने आप को छुपाने में इतनी सिद्धहस्त हूं कि कभी वो मेरी मानसिक स्थिती समझ ही नहीं पाई । उसी क्षण मुझे उसका भोलापन याद आ जाता और अपने वक्त के थपेडे ।वो थपेडे जिनकी पीडा का अहसास अपने सिवाय अपनों को कभी होने ही नहीं देना चाहती । फ़िर सुनैना भी तो मेरी अपनी ही हो चुकी थी ।

एक दिन बहुत खुश थी मुझसे बोली दीदी "राजीव के मम्मी-पापा (उसके सास-ससुर) पहली बार हमारे पास आ रहे हैं वो दिल्ली में
ही किसी की शादी में शामिल होने आ रहे थे सुनैना ने खूब तैयारी की , शायद एक आदर्श बहु बनने के लिए खूब दिल से सेवा की अपने सास-ससुर की राजीव भी अपनी पत्नी के ऐसे व्यवहार से बहुत खुश था जब उसके सास-ससुर शादी में जाने लगे तो सुनैना को भी साथ चलने
को कहा दुल्हन की सी सजी वह जाते-जाते मेरे पास भी आई उसे आदत जो थी मुझे सब कुछ बताने की, पर उस दिन तो वह मुझे अपने आप को दिखाने आई थी कितनी प्यारी लग रही थी वो , बहुत मासूम सी गुड़िया के जैसी

क्रमश:
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