गुरुवार, 3 दिसंबर 2009

चुभन - 1

उम्र लगभग पैंतीस , सुशिक्षित , नौकरी पेशा , दो बच्चों की मां , आदर्श पत्नी ,निम्न मध्यम वर्गीय , पारिवारिक , संस्कारों से सुसज्जित , हर कदम फ़ूंक-फ़ूंक कर रखने वाली , रात के काले स्याह तम में एकटक दीवार पर टंगी पुरानी तस्वीर को घूरती और सुबह होते ही जुट जाती एक ऐसे कार्य में , जो करने के बारे में कभी उसने सपने में भी न सोचा था । न तो जिसके बारे में उसे कोई समझ थी और न ही वह उसे समझना चाहती थी । लेकिन विधि की विडम्बना कि जिस कार्य से उसका दूर-दूर तक कोई वास्ता न था उसी को पूरे तन मन से अंजाम दे रही थी । इस बात से अंजान कि जो वह कर रही है , उसमें वह कभी सफ़ल हो भी पाएगी या नहीं लेकिन कहते हैं कि जब इरादे नेक हों और लगन सच्ची तो रास्ते आसान हो ही जाते हैं । नलिनी का मार्ग इतना आसान न था । वह जिस मार्ग पर तन्हा निकल पडी थी वह टेढा-मेढा , कांटों भरा और और हर कदम पर औरों के तानों के चुभने वाले शूल थे । जानती थी कि वह जिस पथ पर चल रही है उसकी कोई मंजिल दूर-दूर तक कहीं नज़र ही नहीं आती , फ़िर भी मन में संतोष था कि अगर वह दो-चार कदम भी नाप पाई तो एक नई राह तो दिखा ही देगी । बस चाह थी दूसरों के जीवन में नई रोशनी भरने की । दूसरों के जीवन में चन्द खुशियां भरने के लिए न जाने उसने कितनी बार अपने-आप को मारा और जब भी अपना बलिदान देती तो दुगुनी ताकत से फ़िर लडने को तैयार हो जाती । हर बार स्वयं मिट कर जो उसे संतुष्टि मिलती वही उसके जीने का आधार बन चुका था ।
नलिनी हमेशा चिंतन मग्न रहती । उसके दिमाग में हर समय कुछ न कुछ चलता ही रहता । वह एक कंस्ट्र्क्श्न कम्पनी में कार्यरत थी । स्वभाव से मिलनसार , हंसमुख नलिनी कभी किसी से ज्यादा बातचीत न करती । आजकल घर में उसने एक प्ले-होम खोल रखा है । आधा दिन तक प्ले-होम चलाती है फ़िर निकल पडती है अपने उद्देश्य को अंजाम देने । कभी चौपाल पर जाकर भाषण करती है , कभी महिलाओं को इक्कठा कर किसी नेता की सी नेतागिरी झाडती है तो कभी बच्चों को लेकर पैदल मार्च करते हुए निकल पडती है जागरूकता मुहिम पर । उसकी बात को कोई तमाशबीन चटखारे लेकर सुनते , कई अनसुना कर मुंह फ़ेर निकल जाते तो कई उसके मुंह पर ही बुरा-भला कह धिक्कारते ।किन्तु नलिनी इन सब बातों से बेप्रवाह बस बोलती रहती । अब तो नलिनी को देखते ही लोग भागने लगते , या फ़िर आंख बचा कर ऐसे भागते मानो उन्हें खाने के लिए कोई विशालकाय दैत्य उनके पीछे पडा हो । ऐसा नहीं कि नलिनी इन सब बातों से अंजान थी , सब जानती थी लेकिन फ़िर भी अपनी बात बताने की उस पर इतनी धुन स्वार थी कि और कुछ सुनना समझना उसके लिए बेमानी था ।
आज सुबह ही जब मेरी काम वाली बाई नें आकर मुझे बताया कि बाहर गली में कोई स्वयं सेविका आई है और आने-जाने वालों को रोक कर अपना भाषण झाड रही है तो मन में उत्सुक्ता जगी देखने की । बाहर निकल कर देखा तो सफ़ेद सूती साडी में लिपटी आकर्षक महिला को देखते ही उस तरफ़ खिंची चली गई । वह बोल रही थी और कुछ मनचले लडके बडे ध्यान से शरारती हंसी हंसते हुए सुन रहे थे ,वह बस बोलते जा रही थी । पास जाकर आवाज सुनी तो आवाज कुछ जानी पहचानी सी लगी । जब पास आकर चेहरा देखा तो अपनी आंखों पर भरोसा ही न हुआ । यह वही नलिनी थी या मेरा भ्रम । इतने सालों बाद और इस तरह नलिनी को देखकर मेरी क्या प्रतिक्रिया थी ,मुझे कैसा महसूस हुआ , मै खुद नहीं जानती लेकिन उसका बदला हुआ रूप देखकर मुझे झटका सा अवश्य लगा ।
मै नलिनी को वर्षों से जानती हूं । या यूं कहुं कि जन्म से जानती हूं तो गलत न होगा । हम दोनों बचपन की दोस्त हैं । साथ-साथ खेलना , कूदना , पढना और उम्र के एक पडाव में आकर दोनों के रास्ते अलग हो गए । नलिनी बहुत चुलबुली , दुबली-पतली और बचपन से ही आत्म-विश्वास भरपूर थी । जिस काम को करने की ठान लेती , वह कर के ही छोड्ती । चाहे कोई काम हो खेल या पढाई , नलिनी ने कभी हार मानना तो सीखा ही न था । मै हमेशा से उसकी हिम्मत और आत्म-विश्वास की प्रशंसक थी और अपने-आप में कभी-कभी आत्म-ग्लानि भी महसूस करती । इधर-उधर चहकती नलिनी जींस और टी-शर्ट में ऐसे चलती कि लडके भी उसकी तरफ़ आंख उठाकर देखने की हिम्मत न कर पाते । दोस्तों की दोस्त आजाद ख्याल नलिनी का व्यकित्व ऐसा कि कोई भी उससे प्रभावित हुए बिना न रह पाता ।मै नलिनी को अपने दिलो-दिमाग से कभी भुला नहीं पाई लेकिन अपनी जिम्मेदारियों के बोझ तले दबे हम इतने व्यस्त भूल ही गए कि जिन्दगी हमें कहां से किस मोड पर ले आई है । कितना कुछ पीछे छोड आए हैं हम ।
नलिनी भी भला मुझे कैसे भूल सकती थी ? लेकिन उसने मुझे देखकर वो चंचलता और चपलता नहीं दिखाई जो उसके स्वभाव का हिस्सा थी । मै सोच भी नहीं सकती थी कि नलिनी इतनी सौम्य भी हो सकती है ।
मै उसे अपने घर ले गई । उसकी खातिरदारी में मैने कोई कसर न छोडी लेकिन तब तक उसका बदला हुआ रूप मुझे अंदर से कचोटता रहा , जब तक मैनें उससे पूछ न लिया । जवाब में नलिनी बोलते जा रही थी और मेरी सुनने की शक्ति जवाब दे रही थी । जो सुना वह रॊगटे खडे कर देने वाली दास्तां जिसका हर शब्द आत्मा को भी चीर कर उस गहराई तक प्रहार करता कि बेबस ही भद्दी सामाजिक व्यवस्था को छोडछाड कहीं भाग जाने को मन करता ।
क्रमश:

शुक्रवार, 27 नवंबर 2009

60 रुपये की चोरी -2

60 रुपये की चोरी -1

अब तक तो मुझे भी सुनैना की आदत हो चुकी थी , जब तक हर रोज उसके मुंह से उसकी बातें नहीं सुन लेती मुझे चैन ही न मिलता ।लेकिन वह अपने घर में व्यस्त होगी सोचकर मैनें भी दो-तीन दिन तक नहीं बुलाया ।मैं नहीं चाहती थी कि वह अपने सास-ससुर को छोड मेरे पास आकर बैठे । दो-तीन दिन बाद (जब उसके सास-ससुर चले गये)मेरे सामने खड़ी बस रो रही थी
मुझे उसके रोने का कोई कारण समझ न आया । मैने पूछा तो बोली
"दीदी शादी में जाते समय सासू माँ ने मुझे अपना पर्स दिया था और उसमे कुछ रुपये थे"

मुझे लगा शायद वह पर्स किसी ने छीन लिया, दिल्ली जैसे शहर में यह आम बात है

बोली "नहीँ दीदी !पर्स किसी ने नहीँ छीना मुझे जैसा उन्होने दिया था, वैसा ही मैने लौटा दिया मुझे अजन्मे बच्चे की
कसम मैने उसे नहीँ खोला"

कसम खा कर मानो वह अपनी सफाई देना चाह रही थी और रोए जा रही थी
बात अभी भी मेरी समझ से बाहर थी , लेकिन उसकी बात जानने की जितनी उत्सुक्ता थी , उससे कहीं ज्यादा मुझे उसका रोना परेशान कर रहा था । इतना हंसने खेलने वाली सुनैना को इस तरह गिडगिडा कर रोते हुए मैने पहली बार देखा था । जैसे-तैसे पानी पिलाया और थोडा चुप कराया तो फ़िर उसने बताया
"सासू माँ ने सबके सामने मुझे बहुत बेइज्जत किया, उसने सबके सामने पर्स खोला और उसमें से रुपये गिनने लगी "और मुझसे बोली
"इसमें 60 रुपये कम हैं, पर्स तुम्हारे पास था तुम्हीं ने चोरी की है और मेरे पक्ष में कोई कुछ नहीँ बोला, मैने जब राजीव
से कहा तो उसने भी मेरी बात सुनने की बजाय मुझ पर हाथ उठाया और कहा "मेरी माँ झूठ क्यों बोलेगी, की
होगी तुम्हीं ने चोरी"

उसका रोना तो बंद ही नहीँ हो रहा था और मेरी तरफ ऐसे देख रही थी जैसे कहना चाहती हो "दीदी क्या आपके पास है मेरी बेगुनाही का सबूत"
मैं उसे बेगुनाह साबित कर सकूँ , मेरे पास ऐसा कोई सबूत नहीँ था
कितनी ही देर तक वह मुझसे चिपक कर रोती रही थी उनका पारिवारिक मसला समझ कर मैने सुनैना को समझाया अवश्य लेकिन फ़िर कभी न मैने न सुनैना नें ही उस विषय पर बात की ।

कुछ दिन बाद ही हमने दिल्ली छोड़ दिया और फिर कभी सुनैना से बात नहीँ हुई कुछ दिन पूरव ही मुझे दिल्ली जाने का अवसर मिला ,
मेरे पास कुछ खाली समय था तो मैं सुनैना से मिलने गई
क्या यह वही सुनैना है या मेरी आंखों का धोखा ?नहीँ ! मुझे अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीँ हो रहा था, केवल दो साल में ही वह कितना बदल गई है वह मुझे देख कर खुश तो हुई लेकिन वो झूठी खुशी ही लगी मुझे चेहरे पर नकली रौनक लाने का प्रयास कर रही थी कहाँ गई वो मासूमियत, खूबसूरती , आँखों की चमक और सपने ..............सब कुछ गायब था अपनी उम्र से कितनी ही बड़ी लग रही थी वो एक बहुत ही प्यारे से बच्चे को गोदी में लिए उसने मुझे फिर से इस तरह देखा मानो कहना चाह रही हो ............." दीदी मैं उस 60 रुपये की चोरी की सज़ा अब तक भुगत रही हूँ जो मैने कभी नहीँ की क्या आपके पास मेरी बेगुनाही का सबूत है"

सोमवार, 23 नवंबर 2009

60 रुपये की चोरी - 1

बात लगभग अढाई साल पुरानी है , हम दिल्ली में थे हमारे साथ वाले फलैट में एक नव-विवाहित पति-पत्नी रहते थे, नये ही आए थे और अभी केवल चार-पाँच माँह पूरव ही शादी हुई थी
हाथों में चमचमाता सफ़ेद- लाल रंग का चूडा , हरदम मेंहदी से रंगे हाथ , पैरों में पायल की छ्न-छन, कलियों सी नाजुक , फ़ूलों सी छटा बिखेरती , सुन्दर सी साडी में सजी सुनैना की शर्माती हुई कोमल सी मासूम आंखें अनायास ही किसी को भी अपनी ओर आकर्षित कर लेतीं । ईश्वर नें उसे रूप ही इतना सुन्दर दिया था कि कोई भी देखने वाला देखता ही रह जाता , और वह नव-विवाहित दुलहन आंखे झुका शर्म से जब हल्की सी मुस्कान चेहरे पर बिखेरती तो लगता कोई ताजा-ताजा कली चटक के फ़ूल अपना सौन्दर्य बिखेरने को बेताब है ।
उसके साथ एक अजीब सा रिश्ता बन गया था, वो मुझे दीदी कहती और मैं उसे सुनैना , क्योंकि उसकी आँखें बहुत खूबसूरत थी पति
राजीव किसी कंपनी में कंप्यूटर इंजीनियर था और सुनैना भी अध्यापिका थी बहुत खुश रहते दोनों ही हम दोनों ड्यूटी से आने के बाद
थोड़ा मन बहलाने के लिए बाहर सीढियों पर ही बैठ जाती और कितनी ही देर तक बातें करती सुनैना हरदम खुश रहती,
आँखों में अजीब सी चमक, ढेरों सपने और पति के लिए प्यार उसका चेहरा उसके मन के हर राज को खोल देता , और उसकी इतनी मासुमियत देखकर मै कभी-कभी मन ही मन दुआ करती कि कहीं किसी की नज़र न लगे ।उसकी खुशी उससे संभाले न संभलती थी और मै उसके हर राज की भागीदर बनकर एक दोसत और बडी बहन की भूमिका निभाती । न जाने ऐसा उसमें क्या था । क्यों
मैं उसे या फ़िर वो मुझे अपना समझती थी ।फ़िर भी हम जितना वक्त इक्कठी रहती मै स्वयं को छुपाने की कोशिश करती और वो अपनी हर बात जब तक मुझे बता न देती , तब तक उसकी बातें खत्म ही न होतीं ।
कभी-कभी सुनैना मुझे स्वार्थी सी भी लगती , शायद इसलिए कि उसने कभी मेरे अंदर झांकने का प्रयास ही नहीं किया लेकिन अगले ही पल मैं स्वयं को कोसती भी कि शायद मैं ही अपने आप को छुपाने में इतनी सिद्धहस्त हूं कि कभी वो मेरी मानसिक स्थिती समझ ही नहीं पाई । उसी क्षण मुझे उसका भोलापन याद आ जाता और अपने वक्त के थपेडे ।वो थपेडे जिनकी पीडा का अहसास अपने सिवाय अपनों को कभी होने ही नहीं देना चाहती । फ़िर सुनैना भी तो मेरी अपनी ही हो चुकी थी ।

एक दिन बहुत खुश थी मुझसे बोली दीदी "राजीव के मम्मी-पापा (उसके सास-ससुर) पहली बार हमारे पास आ रहे हैं वो दिल्ली में
ही किसी की शादी में शामिल होने आ रहे थे सुनैना ने खूब तैयारी की , शायद एक आदर्श बहु बनने के लिए खूब दिल से सेवा की अपने सास-ससुर की राजीव भी अपनी पत्नी के ऐसे व्यवहार से बहुत खुश था जब उसके सास-ससुर शादी में जाने लगे तो सुनैना को भी साथ चलने
को कहा दुल्हन की सी सजी वह जाते-जाते मेरे पास भी आई उसे आदत जो थी मुझे सब कुछ बताने की, पर उस दिन तो वह मुझे अपने आप को दिखाने आई थी कितनी प्यारी लग रही थी वो , बहुत मासूम सी गुड़िया के जैसी

क्रमश:
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रविवार, 10 मई 2009

बौना कद

बौना कद
दुबला पतला शरीर , गोरा रंग ,चेहरे से झलकता आत्म-विश्वास ,साढे पाँच फुट कद , चाल ऐसी कि चले तो उसका कद वास्तविक से कहीं लम्बा लगता ,
असंभव शब्द जिसकी डायरी में कभी था ही नहीं ,हर समस्या का हल और हर कार्य में (चाहे घर हो या बाहर )सिद्धहस्त , उम्र लगभग तीस साल ,सॉफ्टवेयर
इन्जीनियर की पत्नी और स्वयं प्राध्यापिका , एक कुशल गृहिणी के साथ-साथ सुधा एक ममतामयी माँ ( जिसकी आँखों में न जाने नन्हे कदमों से चलते अपने बेटे के भविश्य लिए कितने सपने समाए है ) स्वयं को सबसे समझदार समझती समझती भी क्यों न अब तक सबकुछ समझदारी से जो किया था और तीस
साल की उम्र तक न जाने कितनी ही मुश्किलो को समझदारी से हल कर परिवार की समस्याओं का समाधान किया था यह केवल दिखावा नहीं था , वास्तव में स्वभाव
ही ऐसा था ,इसीलिए सुधा को क्या मायका क्या ससुराल....हर जगह भरपूर प्यार मिला कहीं चार रिश्तेदार इक्कठे होते तो सुधा की समझदारी की चर्चा अवश्य होती
जिसे सुनकर पहले मायके वालों का सीना चौडा होता था और शादी के बाद ससुराल वालों की छाती गर्व से फूल जाती सुधा को कभी अपने ऊपर घमंड नहीं हुआ और न ही कुछ
अच्छा करके बार-बार जताने की आदत थी शायद उसकी यह आदत सबको पसंद भी थी या पता नही .....?लेकिन कभी उसे किसी का विरोध सहना भी पडा तो बिना परवाह किए
वही किया जो उसका मन माना जब पता हो कि सबका विरोध करके आप जो करने जा रहे है उसमे किसी का अहित नहीं होता है तो वही करना चाहिए , यह उसने अपने माँ-बाप
से सीखा यह अलग बात है कि उन्हीं की दी हुई शिक्षा का पालन करते हुए कई बार न्हीं का विरोध करना पडा
खैर जिन्दगी अच्छी खासी चल रही थी सुधा अपने पति के साथ खुश थी तो उससे उसके मायके और ससुराल वाले शादी के दो साल बाद जब उसका बेटा हुआ तो तो जिन्दगी में सबसे बडी
परीक्षा का समय था सब सामान्य होते हुए भी बेटा सतमासा हुआ और तब घर से उसके पास कोई न आ सका उसे एक बार फिर अपनी समझदारी का परिचय देना था बेटा जिसका जन्म समय वजन डेढ किलो से भी कम था और जिसके इतने छोटे और कोमल शरीर को छूते हुए भी डर लगता था एक बार तो सारी हिम्मत जवाब दे गई कि नहीं संभाल पाएगी ऊपर से बच्चे को इन्फैक्शन का खतरा होने से किसी आय के हाथ भी नहीं सौंप सकती थी फिर न जाने अचानक से उसमें इतनी हिम्मत कहां से आई कि सारी की सारी जिम्मेदारी स्वयं उठाने का फैसला कर लिया और जिस तरह इतने नाजुक हालात में अपनी जिम्मेदारी निभाई उसे शब्दों में नहीं ब्यान किया जा सकता जब उसकी तारीफों के पुल बांधे जाते तो उसे सुनकर ऐसा गर्व महसूस होता कि दुनिया की सबसे समझदार माँ वही है
न जाने क्यों अब सुधा के स्वभाव में अचानक से कैसे बदलाव आ गया शायद अहं का भाव आ चुका था मन में या फिर माँ बनने के बाद यह स्वाभाविक परिवर्तन था न जाने क्यों उसके मन मे यह बात गहराई तक घर कर गई थी कि वही दुनिया की समझदारँ माँ है , यह कभी न सोचा कि जो उसने किया वो तो दुनिया की हर माँ करती है फर्क केवल इतना था कि उसे थोडा ज्यादा करना पडा वो भी बिल्कुल अकेले शायद इस लिए भी कि बच्चे के ले उसने अपना अच्छा-खासा करियर छोड दिया था पतिदेव अपने कार्य में व्यस्त रहते और दिन भर अकेले बच्चे को संभालते-संभालते उसे अजीब सी चिड-चिडाहट होने लगी थी एक तो कभी घर में बन्द होकर रहने की आदत न थी और दूसरा सफल करियर की चाहत कभी-कभी हालत यह होती कि अपने माँ बनने पर गुस्सा आता और इसे अपनी सबसे बडी नासमझी मान स्वयं को ही कोसती रहती लेकिन तभी बच्चे के मासूम चेहरे पर दौडती हल्की सी प्यारी मुस्कान स्व-तत्व को भूलने पर मजबूर कर देती
देखते ही देखते बच्चा डेढ साल का हो गया और उसकी हर नई हरकत , हर नया कदम सुधा मे आत्म-विश्वास के साथ साथ अहम भी भरता जाता वह बच्चेकी हर जरूरत को समझती उसक दुनियादारी सिखाने/समझाने या फिर उसकी हम-उम्र साथियों के साथ की जरूरत को समझते हुए सुधा ने उसे एक प्ले होम में डाल दिया घर से लगभग एक कि.मी. दूर हर रोज सुबह छोड कर आती , आकर घर का काम निपटाती और फिर दो-तीन घण्टे बाद वापिस लेने जाती और फिर उसको खिलाना,पिलाना ,सुलाना ,खेलना और थोडा पढाना ...बस यही दिनचर्या बन कर रह गई थी ,अंदर से एक टीस सी उठती अपना अच्छा खासा करियर छोड्ने की और यही बात वह अकसर अपने पति को जताती भी रहती फिर भी एक सफल माँ होने पर थोडा संतुष्ट थी
आजकल वह एक सफल माँ होने वहम को मन में पाले सर उठा कर चलती ,उसका अहम उसके चेहरे से साफ झलकने लगा था बच्चे को हर रोज कुछ न कुछ न्या सिखाकर और सीखते देखकर उसका कद कई गुना बडा लगने लगा था वह जब भी बच्चे को लेने जाती तो अकसर एक साधारण सी औरत को देखती जो अपनी छोटी से बच्ची की उंगली पकडे उसे ले जा रही होती बच्चे कोई भी हों अनायास ही अपनी ओर आकर्षित कर ही लेते हैं एक दूसरे को रोज देखते-देखते वे दोनों एक दूसरे को पहचानने लगी थी बच्ची की माँ ज्यादा पढी-लिखी न दिखती थी , एकदम साधारण और मार्ग में सहमी हुई सी धीरे-धीरे ऐसे चलती जैसे उसमें आत्म-विश्वास नाम की कोई चीज ही न हो सुधा उसे पिछले लगभग छ्:सात माह से देख रही थी बच्ची की स्कूल यूनिफॉर्म से स्कूल तो सुधा को पता चल ही चुका था और अब उसका बेटा भी स्कूल जाने योग्य हो गया था घर के पास ही एक बहुत अच्छा नामी स्कूल होने के कारण सुधा ने भी अपने बेटे को उसी स्कूल में दाखिला दिलाने की सोच रखी थी क्योंकि बच्चे को जहां भेजना है उसके बारे में पूरी जानकारी भी होनी चाहिए और सुधा तो हर कदम फूँक-फूँक कर रखती थी उसे पूरी तस्स्ली करके ही बच्चे को उस स्कूल में भेजना था यही सोच कर एक दिन जब उसने उस औरत को फिर से अपनी बच्ची के साथ देखा ,, स्कूल की जानकारी लेने हेतु पहले तो सुधा ने बच्ची को प्यार से बुलाया और फिर स्कूल के बारे मे पूछ-ताछ की इसके बाद वह जब भी दिखती तो वह औरत सुधा को देखकर मुस्करा देती , कभी कभी बातचीत भी हो जाती एक बार उससे यूँ ही पूछ लिया -
तुम रहती कहां हो ?
जी , ओल्ड मद्रास रोड
ओल्ड मद्रास रोड.....?पर वो तो बहुत दूर पडता है यहां से
जी मैडम.....
तो तुम इतनी दूर से आती हो ?
बच्ची के लिए मैडम (सुधा का ऐसा प्रतीत हुआ जैसे किसी ने उस पर प्रहार किया हो जिससे उसका तन क्या मन भी घायल हो गया )लेकिन फिर पूछा -
(तुम आती-जाती कैसे हो ?
लोकल बस से.....
तो इतनी देर कहां रहती हो ?
जब तक बच्ची स्कूल में रहती है ,तब तक मै दो-तीन घरों में बर्तन साफ करने का कार्य निपटा लेती हूँ इससे इसके स्कूल खर्च का इंतजाम भी हो जाता है और फिर छुट्टी के बाद इसे लेकर घर जाती हूँ
पर तुम इतनी दूर क्यों आती हो ?बच्ची को वही आस-पास किसी स्कूल में डाल कर भी तो तुम काम कर सकती हो ?
पास में कोई अच्छा स्कूल नहीं है , मै ज्यादा पढी-लिखी नहीं हूँ ,पर इसे पढाना चाहती हूँ इसके बापु ने बोला ....अगर इसे इतनी दूर और इतने मँहगे स्कूल में डालना है तो इसे लाने-लेजाने और खर्चों का प्रबन्ध तुम्ही करोगी ....
सुधा के पास तो अब जैसे बोलने को कोई शब्द ही नही रहे थे ,वह बोलते जा रही थी और उसका हर शब्द सुधा को अपनी ममता पर प्रहार लग रहा था उसके सामने आज सुधा को अपना कद बहुत बौना प्रतीत हुआ......

गुरुवार, 30 अप्रैल 2009

बिखरी जिन्दगी

दीवार से सटी बैठी सुजाता हाथ मे बन्धी पट्टी को एक़ टक घूरती हुई जैसे सुन्न सी ही हो गई पट्टी बान्धते -बान्धते उसने पाँच साल के बेटे रोहन को पास बुलाया ,पर रोहन ने साफ इन्कार कर दिया
रोहन के मुँह से इन्कार सुजाता की जिन्दगी की सबसे बडी हार थीआँखो से अविरल बहती अश्रुधारा के साथ अतीत की यादो मे खोई सुजाता की जिन्दगी कुछ ही पलो मे क्या से क्या हो गई ?
कितनी खुश थी वह अनुज का साथ पाकर दोनो ही बचपन के दोसत , पडोसी और पारिवारिक सम्बन्ध भी बहुत अच्छे
सुजाता के पिता जी के देहान्त के बाद वही लोग थे जिन्होने सुजाता और उसकी माँ को पारिवारिक सदस्य की भान्ति
समझा था वरना दुनिया की भीड मे अकेली औरत छोटी सी बच्ची के साथ पूरी जिन्दगी का सफर ...........?

अनुज और सुजाता इक्कठे खेलते कब बडे हो गए और यह बचपन की दोसती ने कब प्यार का रूप ले लिया ,
पता ही न चला कॉलेज की पढाई खत्म करने के बाद ही अनुज और सुजाता दोनो ही अपने - अपने काम मे व्यस्त हो गए सुजाताअध्यापिका और अनुज इन्जीनियर ,बहुत प्यारी जोडी थी दोनो की और किस्मत भी मेहरबान सबसे बडी बात यह कि किसी को भी उनके प्यार पर कोई एतराज ही न था कितनी आसानी से मिल गई थी दोनो के प्यार को मन्जिल
सुजाता तो इतनी खुश कि कदम ही जमी पर न पडते थे अनुज भी सुजाता का साथ पाकर बेहद प्रसन्न था उनकी खुशियो को चार चाँद लग गए जब एक ही साल बाद एक प्यारा सा बेटा जिन्दगी मे आ गया भला इससे ज्यादा और क्या चाहिए एक सुखी जीवन और खुशहाल परिवार के लिए देखते ही देखते पाँच साल बीत गए ,जिन्दगी तो जैसे भाग ही रही थी, लेकिन अनुज और सुजाता का प्यार तो समय के साथ और भी गहराता गया
क्यो न होता? , जीवन मे सबकुछ तो पाया था उन्होने भले ही सुजाता को
अपने पिता का प्यार न मिला लेकिन ससुराल मे इतना प्यार मिला कि वो पिता को भी भूल गई
सुख के दिनो की उम्र शायद बहुत बहुत छोटी होती है एक दिन अनुज के पिता हृदय गति रुकने से दुनिया से चल बसे और माँ यह सदमा सह न पाई अपने पति की मृत्यु के बाद से ही अस्पताल मे थी सुजाता अपनी सास की खूब सेवा करती ऐसे मे रोहन अपनी नानी(सुजाता की माँ) के पास ही रहता अनुज को अपने काम के सिलसिले मे कुछ दिन के लिए शहर से बाहर जाना पडा तो सुजाता पर ही सारी जिम्मेदारी आ पडी लेकिन कुछ ही दिन की बात थी
सुजाता अपनी ड्यूटी के बाद सीधे अस्पताल मे जाती और फिर शाम के समय घर आ जाती एक दिन अस्पताल मे ही उसे काफी रात हो गई थी मना भी किया था सासु माँ ने इतनी रात को अकेले न जाने के लिए,लेकिन बच्चे के लिए तो घर पहुँचना ही था
रात को अकेले जाते हुए उसे थोडा डर तो महसूस हुआ लेकिन हिम्मत करके आटो रिक्शा लेकर चल ही पडी
वो अकेली क्या चली ,उससे तो जैसे तकदीर ही रूठ गई रास्ते मे सुनसान जगह,दूर्-दूर तक फैला सन्नाटा,अन्धेरी रात और अकेली औरत.....?
आटो रिक्शा चालक और तीन नकाबपोश ......फिर बारी -बारी से सबकी गड्ड्-मड्ड अपनी भूख मिटाई और बेहोश सुजाता को वही छोड रात के अन्धेरे मे ही गायब
कुछ पलो मे सबकुछ लुट गया था ,और किसी को खबर तक न थी सुजाता तो उन्हे पहचानती तक न थी जब होश आया तो अन्धेरा तो छन्टने लगा था और हल्की सी सूर्य की किरण भी धरती पर पड रही थी
पर आज की यह किरण तो सुजाता की जिन्दगी मे हमेशा के लिए अन्धेरा करने को आई थी सँभली तो सिवाय माँ के और कुछ न सूझा जैसे -तैसे घर पहुँची माँ तो सुन कर वही की वही ढेर और फिर कभी न उठी सुजाता तो ऐसे समय मे कुछ भी समझने के काबिल न थी जब उसको किसी कन्धे की जरूरत थी ,जिस पर वह सिर रख कर रो सके, ऐसे समय मे वह भरी-पूरी दुनिया मे दिल पर चट्टान सा बोझ लिए बिल्कुल अकेली थी करती भी तो क्या ?बीमार सास से कुछ कहने की हिम्मत न जुटा पाई और कोई और ऐसा था ही नही जिससे कुछ कह पाती अपनी पीडा को अन्दर ही अन्दर दफन करने को मजबूर थी
कुछ दिन मे अनुज भी लौट आया लेकिन तब तक तो सब कुछ उथल पुथल हो चुका था
सुजाता के मुँह मे तो जैसे जुबान ही न थी ,हर समय गुम-सुम
अनुज को लगा ,शायद माँ की मृत्यु से आहत है ,उसे प्यार से समझाने की कोशिश करता पर अनुज की सब कोशिश व्यर्थ जाती
कोई दो माह बाद सुजाता अस्पताल मे थी ,एक अनचाहे गर्भ की पीडा झेलते हुए दो महीने का गर्भ तो गिर गया और थोडा सा सुजाता को सन्तोष भी मिला था ,न जाने किसका पाप उसके अन्दर पल रहा था
चलो अब जिन्दगी भर उस पाप का मुँह तो न देखना पडेगा लेकिन जब भाग्य ही विपरीत हो तो कोई क्या करे?
गर्भ तो गिर गया परन्तु गिरते-गिरते भी अपनी निशानी छोड गया
ऐसी पीडा जो नासूर बन कर हर समय चुभती रहती
ज़ब डॉक्टर ने अनुज को समझाते हुए सावधानी बरतने को कहा था और बताया था कि
यह बीमारी छूने से या फिर जूठा खाने से नही फैलती ,बस आपको ध्यान रखना होगा कि उसका खून किसी के खून से न मिलने पाए और उसे कोई चोट आने पर नन्गे हाथो से उसका घाव न छुए वह भी सामान्य जिन्दगी जी सकती है
बस जरूरत है भावनात्मक सहारे और प्यार की

यह सब बाते रोहन भी सुन रहा था और उसके नन्हे मन पर सब बाते घर कर गई थी
अनुज़ डॉक्टर की बात तो सुन रहा था लेकिन आँखो मे तो जैसे खून ही उतर आया था ,
वही के वही वह स्वयम को खत्म देना चाहता था

उसके प्यार के साथ इतना बडा धोखा .......?
इतनी बेवफाई.......?
उसकी पत्नी .....चरित्रहीन.....?

अनुज तो कुछ सुनने समझने की शक्ति ही खो बैठा था बस उसे सुजाता एक बेवफा और चरित्रहीन ही नज़र आई

क्या कमी थी मेरे प्यार मे....?
उसे और क्या चाहिए था...?

जो मुझे छोड कर बाहर....छी ,
मैने कैसे सुजाता जैसी औरत पर भरोसा किया....?

सोचते -सोचते अनुज तो पागल ही हो गया

सुजाता ने बहुत प्रयास किया कि अनुज से बात करे और उसे सब कुछ बता दे ,पर अनुज की आँखो पर तो
नफरत की पट्टी बन्ध चुकी थी अपने जिस बेटे रोहन के बिना वह एक पल न रह पाता था वो भी अब उसे
किसी का पाप ही दिखने लगा था

और एक दिन अनुज ने अपना तबादला दूसरे शहर मे करा लिया बीमार माँ का इलाज़ कराने के बहाने माँ को साथ
लेकर सुजाता और बच्चे को अकेला छोड चला गया कहाँ गया ...?

सुजाता न जान पाई और इस हालत मे उसे ढूँढती भी तो कहाँ ...?

सुजाता के पास धन -दौलत की तो कमी न थी लेकिन जो प्यार और भावनात्मक सहारा उसे चाहिए था वही न था
शायद वह भी सामान्य जिन्दगी जी पाती ,अगर अनुज ने उसे थोडा समझा होता

फिर भी अपने बेटे की खातिर जिए जा रही थी पर एक दिन जब बागीचे मे बिखरे पत्ते समेटते हुए उसके हाथ मे काँटा
चुभ गया और खून बहने लगा तो अनजाने मे ही पट्टी बान्धते-बान्धते रोहन को पास बुलाया था

और नन्हा सा रोहन जिसके दिमाग मे डॉक्टर अन्कल की बाते घर कर चुकी थी ने माँ से कहा:-

"नही ! मै नही आऊँगा ,डॉक्टर अन्कल ने कहा था आपका खून अगर हमे लग गया तो हमे भी एडस् हो जाएगी

रोहन के मुँह से ऐसी बात सुन कर सुजाता तो टूट कर बिखर ही गई अगले ही दिन रोहन को हॉस्टल मे
भेजने का इन्तजाम कर सुजाता जब घर लौटी तो अन्धेरा हो चुका था छत पर जाकर खुले आसमान का सूनापन
अपनी सूनी आँखो से ताकते-ताकते कब सदा की नीद सो गई ,पता ही न चला

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Note:-एड्स छूने से ,हाथ मिलाने से या फिर जूठा खाने से नही फैलता
एड्स फैलता है असुरक्षित यौन सम्बन्ध से ,इस्तेमाल की हुई सुई का प्रयोग करने से
एड्स के मरीज भी सामन्य जिन्दगी जी सकते है ,उन्हे भावनात्मक सहारा चाहिए
एड्स के मरीज का घाव नन्गे हाथ से नही छुएँ
किसी का खून लेने से पहले उसकी जाँच होना अनिवार्य है


एडस:- जानकारी ही बचाव है

रविवार, 8 मार्च 2009

अर्धांगिनी


ऊँचा -लम्बा कद, साँवला रंग , छरहरा बदन, चुस्त-फुरत ,चले तो लगता है भागती है जल्दी-जल्दी से बर्तन घिसते हाथ , साथ में कभी कभी मीठी आवाज़ में गुनगुनाना( जो मैं कभी समझ नहीं पाती), साड़ी में लिपटी दुबली-पतली काया ,हाथ में मोबाइल, स्वयं को किसी राजकुमारी से कम नहीं समझती

जी नहीं ! यह कोई और नहीं ,यह है शारदा बाई (मेरी काम वाली) जो अक्सर देरी से ही आती है और एक महीने में चार - पाँच छुट्टियां आराम से मार लेती है चतुर इतनी है कि जहाँ पर ध्यान नहीं दिया , वही पर काम में गड़बड़ी कर जाती हैउसकी इस आदत से मैं अक्सर परेशान रहती ही हूँ मैं ही नहीं वो भी मुझसे परेशान रहती है ,जब उसको मेरे सवालों का सामना करना पड़ता है दोनों ही एक दूसरे से परेशान है ,पर खुश भी है वो शायद इस लिए कि हम दोनों एक दूसरे की कमजोरी जानती है जब मुझे गुस्सा आता है तो शारदा बोलती ही नहीं ,बस मैं जो कहूँ ,चुपचाप कर देती है ,गुस्सा करके मुझे स्वयं को ग्लानि होती है

न तो शारदा अपने में सुधार कर सकती है और न ही मैं अगर मैं यह कहूँ कि एक दूसरे को सहना हमारी आदत बन चुकी है ,या फिर मजबूरी है तो गलत नहीं होगा काम करवाना मेरी मजबूरी है और करना उसकी मजे की बात यह कि मुझे उसकी भाषा भी समझ नहीं आती वो तेलुगु है और मैं पंजाबी यह भी एक कितनी बड़ी त्रासदी है कि एक ही देश हमारा घर है ,लेकिन एक दूसरे से अपनी बात नहीं कह सकते पर धन्यवाद है हमारी हिन्दी मैया का कि हम भले ही देश के किसी कोने में क्यों न चले जाएँ ,अपनी बात समझा ही लेते हैं

खैर ! बात शारदा की हो रही थी ,जो सुबह मेरे घर लगभग साढ़े सात बजे पहुँच जाती है लगभग सात बजे घर से चलकर सबसे पहले मेरे ही घर आती है और साढ़े बारह बजे तक छ: सात घरों का काम निपटा कर अपने बच्चों को स्कूल से लेती हुई जाती है

पिछले कुछ दिनों से मैंने उसके हाथ में मोबाइल गायब पाया तो एक दिन मुझसे रहा न गया और पूछ ही लिया

वो मैडम ! मेरे हसबेण्ड का मोबाइल चोरी हो गया तो मैंने अपना उसे दे दिया

बात छोटी सी ही थी लेकिन मैं छोटी-छोटी बातें कुछ ज्यादा सोच लेती हूँ वैसे भी इस पर कोई बस थोड़े ही होता है कौन सी सोच कब,कहाँ ,कैसे आ जाए , हमें खुद पता नहीं होता और मैं सोच रही थी , अगर यही मोबाइल शारदा का गुम हुआ होता तो क्या उसके पतिदेव ने अपना मोबाइल शारदा को दिया होता ? इसका तो सीधा सा जवाब था :- नहीं अगर वो ऐसा कर सकता तो शारदा से लेता ही नहीं खैर !इसका सीधा सा जवाब मेरे अपने पास था तो ज्यादा सोचा नहीं इतनी बड़ी बात भी नहीं थी जिस पर सोचा जाए

लेकिन अब मैं अपने -आप को लिखने से नहीं रोक पाई जब आज शारदा मेरे घर सुबह न पहुँची तो मुझे फिर से उस पर गुस्सा आ रहा था दो घण्टे इन्तज़ार किया और फिर उसके घर फोन फोन शारदा के पतिदेव ने उठाया मैंने पूछा तो पता चला कि वो तो सुबह सात बजे ही घर से निकली थी मैंने चिन्तित स्वर में कहा:-तो अब तक तो उसे आ जाना चाहिए था
पता नहीं मैडम ......पहुँच जाएगी.....
शायद उसके मन में कोई चिन्ता की रेखा न फूटी थी , या फिर मुझे ही कुछ ज्यादा चिन्ता होती है

कोई आधे घण्टे बाद शारदा मेरे घर पहुँची तो सर पर पट्टी बाँधे हुए और थोड़ी बेहोशी सी होती हुई

अरे! यह क्या हुआ तुम्हें ?
गिर गई मैडम
कैसे.....?
रास्ते में पैर फिसला और सर नीचे पड़े पत्थर पर लगा लोग उठा कर अस्पताल ले गए और पाँच-छ्: टाँके लगे है दिखने से ही लग रहा था :-घाव गहरा है मैंने उसे बिठाया ,हल्दी का दूध और खाना दिया मैंने शारदा से काम नहीं करवाया और उसके पतिदेव को फोन करने लगी तो शारदा ने मुझे मना कर दिया ,बोली:-

बेवजह उनको टैन्शन होगी , मैं ठीक हूँ ,अपने - आप चली जाऊँगी और थोड़ी देर बाद शारदा चली गई

आज शारदा का मैंने अलग ही रूप देखा था जिस पति को अपनी पत्नी के इतनी देर तक भी न पहुँचने पर कोई चिन्ता न हुई थी ,उसी की पत्नी अपनी तकलीफ की परवाह नहीं करके पति की चिन्ता के बारे में सोच रही थी आज मैंने एक सच्ची अर्धांगिनी का वास्तविक रूप देखा था और यही सोच कर मैंने शारदा को उसके घर फोन करने की बात नहीं बताई ताकि उसका अपने पति के प्रति विश्वास ,निष्ठा और प्रेम-भाव बना रहे

सोमवार, 2 मार्च 2009

लोअ लेवल विद्यार्थी


आधुनिक शिक्षा प्रणाली का नया नियम
अभिभावकों की खुशी देखो और विद्यालय की दुकानदारी चलाओ अटपटा लगा न सुनकर विद्यालय जिसको विद्या देवी का मन्दिर कहा जाता है , जहां से बडे-बडे महान लोग
विद्या धन धन हासिल कर दुनिया को नई राह दिखाते हैं और जहां पर बिना किसी भेद-भाव के सबको बराबर समझा जाता है -
उसके लिए दुकानदारी शब्द अखरेगा ही लेकिन सत्य तो यही है और सत्य कडवा होता है न चाह कर भी अपनाना
पडता है आधुनिक शिक्षा प्रणाली में एक न्या अध्याय जुड गया है-अभिभावकों को खुश रखो और विद्यालय की दुकानदारी खूब चलाओ.....
कहते कहते महेश की आंखें छलक आईं जो किस्मत और हालात के आगे कभी न हारा था , जिसने हर मुश्किल का सामना
बहादुरी से किया और अपने बेटे तरुण से भी उसने यही अपेक्षा की थी क्या कुछ नहीं किया उसने एक बाप होने के नाते
मध्यम वर्गीय परिवार से होकर और सीमित आय के बावजूद भी सपना था बेटे को इण्टरनैश्नल स्कूल में पढाना स्वयं तो सारी जिन्दगी
पढाई में गाल दी न जाने दिन रात मेहनत करके किस तरह इन्जीनियरिंग की वो भी उस हालात में जब पिता का साया सर से उठ चुका था
बीमार माँ और दो छोटी बहनों की जिम्मेदारी अचानक ही सिर पर आ पडी थी लेकिन शुक्र था तब तक वो मैट्रिक पास कर चुका था और पिता
के स्थान पर ही कलर्क की नौकरी मिल गई थी जब जिन्दगी जीने के दिन थे तब इतनी बडी जिम्मेदारी संभालना आसान न था , लेकिन महेश
ने कभी हार न मानी और नौकरी के साथ-साथ पार्ट-टाईम अपनी पढाई भी जारी रखी और एक दिन कम्पयूटर इन्जीनियरिंग की डिग्री भी मिल गई
सरकारी नौकरी में तनख्वाह इतनी कम थी कि दो वक्त का गुजारा मुश्किल से चलता इंसान जब आगे बढता जाता है तो उसकी ख्वाहिशें उससे दुगुनी
रफ्तार से बढती हैं महेश को एक कम्पनी में अच्छी-खासी तनख्वाह का ऑफर मिला तो सरकारी नौकरी त्याग दी
समय बीता दोनों बहनों की शादी कर पिता के कर्ज़ और भाई के फर्ज़ से मुक्त हुआ तो अपनी जिन्दगी का भी ध्यान आया कविता जैसी सुशील लडकी उसकी जिन्दगी में आई
तो महेश को लगा जैसे कुदरत उस पर मेहरबान है ,जिन हालात का सामना उसने जवानी की दहलीज में कदम रखते ही किया था उसके बाद जीवन में ऐसा बदलाव भी आएगा , कभी सोचा ही न था महेश के जीवन की गाडी चलने नही बल्कि तेज़ रफ्तार से दौडने लगी वो अबोध बालक महेश अब एक पिता महेश बन चुका था इस दौरान जिन्दगी के उतार-चढाव इतने देख चुका था कि अपने बेटे को उस साए से भी दूर रखना चाहता था और फिर उसके पास और था ही क्या परिवार के नाम पर पत्नी और एक बेटा जिनकी झोली में वह दुनिया भर की खुशियां डाल देना चाहता था जिन्दगी का जो रस वह स्वयं न चख पाया था ,उसके स्वाद से बेटे को वंचित न रखना चाहता था
जिस दिन से तरुण का जन्म हुआ , तभी से महेश का एक ही सपना था- बेटे को अच्छी से अच्छी शिक्षा दिलाना तभी से ही तलाश शुरु हो गई थी सबसे अच्छे स्कूल की एक इण्टरनैश्नल स्कूल में रजिस्ट्रेश्न करवाई और फिर किसी की सिफारिश से बहुत मिन्नतों के साथ तरुण का दाखिला तो हुआ लेकिन जो रक्म उससे स्कूल बिल्डिंग फंड के नाम पर मांगी गई , उसके लिए पत्नी के गहने तक बेचने पडे तभी जाकर तरुण का दाखिला हो पाया महेश की पत्नी कविता एक पढी-लिखी समझदार औरत थी , उसने महेश को अपनी हैसियत में ही रहकर सोचने की बहुत सलाह दी लेकिन महेश पर तो जैसे मंहगे से मंहगे स्कूल का भूत स्वार था पति की जिद्द के आगे कविता की एक न चली तरुण तीन साल का मासूम बच्चा इन सब बातों से बेखबर जानता ही न था कि उसके लिए क्या-क्या हो रहा है बस तरुण स्कूल जाने लगा और उसकी हर जरूरत जैसे तैसे पूरी की जाती सोसाइटी में जाकर महेश बहुत गर्वान्वित महसूस करता कि उसका बेटा इण्टरनैश्नल स्कूल में पढता है बस गर्व करने के लिए एक स्कूल का नाम ही काफी था बच्चा क्या सीख रह है ,या स्कूल में क्या गतिविधियां हो रही हैं इस बात की परवाह न थी कविता सबकुछ देखती लेकिन महेश पर तो न जाने कौन सा भूत स्वार था जो पढी-लिखी पत्नी को भी यही कहता:
"अरे तुम गंवार हो तुम क्या जानो इण्टरनैश्नल स्कूल का स्टैण्डर्ड , कभी घर से बाहर निकल दुनियादारी निभाई हो तो तुम्हें कुछ अक्ल आए न "
कविता बस चुप कर अंदर ही अंदर रोकर रह जाती महेश तरुण की पढाई और स्कूल की किसी गतिविधी के बारे में तो कोई जानकारी न रखता पर मासिक रिपोर्ट कार्ड अवश्य देखता
जिसमे सभी विषयों में ए ग्रेड देखकर फूला न समाता और हर बार तरुण को कुछ न कुछ नया मिल जाता बढते बच्चे की ख्वाहिशें भी उम्र के साथ बढने लगीं और महेश को भी क्योंकि अब अच्छी खासी मोटी रक्म तनख्वाह के नाम पर मिलती तो तरुण के मांगने से पहले ही उसकी हर इच्छा की पूर्ति हो जाती न कभी स्कूल वालों से कोई शिकायत और न ही कभी ए से कम ग्रेड तो और क्या चाहिए था
आज तरुण नौंवी कक्षा पास कर चुका था और दसवीं में प्रवेश लिया उसकी असली परीक्षा की घडी अब थी दसवीं क्योंकि बोर्ड का एक्जाम था तो पिछले दस साल में पहली बार महेश को स्कूल बुलाया गया -
देखिए दसवीं का बोर्ड का एक्जाम है और हम नहीं चाहते कि आपके बच्चे के कम अंक आने से हमारे स्कूल का नाम बदनाम हो ,और एक साल अगर आप इसको अच्छी ट्यूशन करवा देन्गे तो आपके बच्चे के परीक्षा में अच्छे अंक आएंगे , कहते कहते स्कूल प्रधानाचार्य ने महेश को सलाह दी थी
बात महेश की अब भी समझ न आई थी और तरुण के लिए घर में ही मैथ , साइंस जैसे विषयों के लिए ट्यूटर का प्रबन्ध किया गया जब इतना बडा स्कूल है , और अब तक हर बार उसके अच्छे अंक आते रहे हैं तो अब उसे किसी ट्यूशन की क्या आवश्यकता कविता सोचती बहुत लेकिन बेबस थी
खैर दसवीं की परीक्षा हो चुकी थी और अब परिणाम घोषित होना था महेश को पूरा विश्वास था कि जितना पैसा उसने तरुण पर खर्च किया है और जैसा उसे महौल दिया है उससे तरुण् अवश्य ही कम से कम मैरिट लिस्ट में जरूर आएगा सुबह से ही परीक्षा परिणाम का इन्तजार हो रहा था महेश ने ऑफिस से छुट्टी ले रखी थी कि परिणाम के बाद किसी अच्छी सी जगह घूमने के लिए जाएंगे परिणाम घोषित हुआ , बडी ही उत्सुकता के साथ महेश तरुण का नाम लिस्ट में ढूँढ रहा था सबसे पहले मैरिट लिस्ट में नाम देखा पूरी की पूरी मैरिट लिस्ट देखकर महेश उदास हो उठा और फिर स्वयं को समझाते हुए उत्तीर्ण् विद्यार्थियों की लिस्ट में नाम देखा , वहां भी जब निराशा ही हाथ लगी तो तीसरी लिस्ट परीक्षा में अनुत्तीर्ण हुए विद्यार्थियों में सबसे ऊपर तरुण का नाम देख महेश के पैरों तले जमीन खिसक गई और तब तो महेश को अपनी आँखों पर एतबार ही न हुआ जब तरुण को इस पर भी अपने दोस्तों के साथ हँसते-खिलखिलाते पाया
महेश के सब्र का बान्ध टूट चुका था , वह तो जैसे लज्जा के मारे जमीन में धंस रहा था और सारा का सारा दोष स्कूल वालों पर थोप कर मारे क्रोध के पहुँच गया था आज दूसरी बार ऑफिस में , अपने मन का गुबार निकालने और जो भी मुँह में आया बोल दिया
तरुण आपका बेटा है , हम यहां स्कूल में बच्चे की हाजिरी की गारन्टी लेते हैं , पढाई का ध्यान तो आपको स्वयं को भी रखना पडेगा अगर आपका बच्चा पढाई में कमजोर है तो वह आपकी भी जिम्मेदारी बनती है , केवल हमारी नहीं प्रधानाचार्य ने कडवे शब्दों में कहा
लेकिन.....लेकिन तरुण तो हमेशा अच्छे अंकों से पास होता आया है और हर बार मैने उसके रिपोर्ट-कार्ड में ए ग्रेड ही देखा है फिर वह अनुत्तीर्ण कैसे हो सकता है
तरुण को ए ग्रेड तब मिलता था जब परीक्षा हमारे स्कूल की होती थी और हमारे स्कूल में विद्यार्थी के मानसिक स्तर के अनुरूप ही परीक्षा ली जाती है
मानसिक स्तर.....
मानसिक स्तर महेश की समझ से बाहर था
लेकिन वह तो सभी को एक जैसा ही परचा हल करने को दिया जाता है न कक्षा में और एक ही कक्षा में सभी विद्यार्थी लगभग एक ही आयु वर्ग के होते हैं तो फिर यह मानसिक स्तर......?


हम बच्चों पर मानसिक दबाव नहीं डालते जो बच्चे अपना कक्षा कार्य नहीं कर पाते या कुछ मुश्किल चीज समझने में अस्मर्थ होते हैं तो हम उनको आसान परचा हल करने को देते हैं जिससे उसका अच्छा ग्रेड आ सके कई बार तो हम आठवीं , नौवीं के बच्चे को चौथी या पांचवीं का सिलेबस भी दे देते हैं तरुण भी उन लोअ लेवल विद्यार्थियों में से एक था
लोअ लेवल विद्यार्थी......?
लेकिन आप चिन्ता मत कीजिए अगले वर्ष तरुण को किसी राजकीय पाठशाला से परीक्षा दिलाएं तो वह अवश्य उत्तीर्ण हो जाएगा
महेश के पास अब कहने को कुछ न था वह अंदर से टूट चुका था , उसकी जिन्दगी भर की मेहनत और सपनों पर पानी फिर चुका था और अब वही कविता जिसको महेश ने हमेशा गंवार कहा तरुण की पढाई का स्वयं जिम्मा उठाने की बात कहते हुए महेश के आंसु पोंछ रही थी

बुधवार, 25 फ़रवरी 2009

मुखौटा


खट्टी-मीठी यादों से मेरी बहुत सी यादें जुडी हैं , वो फिर कभी अवसर मिलते ही पोस्ट करुन्गी लेकिन पहले वो छोटी छोटी कहानियां/घटनाएं जिन्होंने मुझे लिखने पर मजबूर कर दिया


मुखौटा

मेट्रिक पास , उम्र लगभग सोलह साल ,बातों में इतनी कुशल कि बड़े-बड़ों मात दे जाए , साँवला रंग , दरमियान कद , दुबली-पतली,तेज़ आँखें , चुस्त - दुरुस्त, व्यक्तित्व ऐसा कि क्या डॉक्टर, क्या इन्जीनियर , क्या करोड़पति महिलाएं उसके इशारे पर नाचने को मजबूर हो जाती है
बड़ी ही चालाकी से वह दूसरों के बाल काट देती है , केवल बाल ही नहीं काटती मुँह पर थपेड़े भी मारती है और किसी को बुरा भी नहीं लगता बल्कि इसके लिए मिलती है उसको अच्छी खासी मोटी रकम भी (जो वह किसी और के लिए होती है) कोई खुशी से देती है तो कोई मजबूरी में लेकिन देती सब है,जिसको वह अपनी उंगलियों पे नचाती है जिस तेज़ी के साथ चेहरे पर उसके हाथ चलते है उसी आत्म-विश्वास के साथ चलती है बालों में कैंची कभी वह अपनी गोदी में पैर रख कर बिना किसी भेद-भाव और नफरत के करती है दूसरों के पैरो और नाख़ुनों की सफाई और कभी उतनी ही ईमानदारी से करती है मालिश और साथ - साथ में चलती रहती है उसकी मीठी जुबान भी अपने हाथों और जुबान में तालमेल बैठाना वह बखूबी जानती है
जी हाँ ! मैं जानती हूँ एक ऐसी लड़की को जो एक लेडिज़ ब्यूटी पार्लर में काम करती है नहीं , वह केवल ब्यूटी पार्लर में काम नहीं करती , बल्कि एक घरेलू कन्या है
घरेलू कन्या ! नहीं घरेलू नौकरानी है अरे ! वह एक छोटे बच्चे की आया भी है , अभी वह स्वयं भी बच्ची ही है छोटी सी गुड़िया को नहलाना,उसका लन्च बॉक्स तैयार करना और फिर स्कूल(डे केयर) छोड़ने जाना वापिस आ कर सबका नाश्ता तैयार करना ,सबको खिलाना,बर्तन साफ करना ,ब्यूटी पार्लर में जाना और जुट जाना अपने काम में दोपहर का भोजन भी वही बनाती है , शाम तक कार्य और फिर बच्ची को स्कूल से लाना, घर जाकर रात का खाना बनाना,बर्तन साफ करना,रात को कपड़े धोना,सुखाना और अगली सुबह सबके पहनने के लिए कपड़े इस्तरी करना और फिर जाकर पूरी दुनिया को सुलाकर सोना, सुबह सूर्य की पहली किरण से पहले जागना उसका नियमित कार्य है फिर भी उसके चेहरे पर कभी उदासी नहीं देखी हमेशा मुस्कराता हुआ चेहरा अनायास ही अपनी ओर आकर्षित कर लेता है
उसे देखने पर ऐसा महसूस होता है मानो दुनिया की सबसे खुश रहने वाली लड़की वही है कभी कोई शिकन नहीं , और न ही कोई शिकायत निम्मो यही नाम है उसका या फिर सभी उसे इसी नाम से बुलाते है कभी -कभी मुलाकात हो जाती है , जब मैं भी अपने बच्चे को स्कूल छोड़ने जाती हूँ दोनों बच्चे एक ही स्कूल में है जब मिलती है तो थोड़ी बातचीत होना स्वाभाविक है
एक दिन ऐसे ही बातों ही बातों में मैंने पूछ लिया, (जो शायद मुझे नहीं पूछना चाहिए था ) तुम्हें कितनी तनख्वाह मिलती है ? (निम्मो के चेहरे पर कुछ अजीब से भाव दौड़ गए ,लेकिन बिना मुझे महसूस करवाए उसने उत्तर दिया) दो हजार मैडम
केवल दो हजार ....?
(चेहरे पर व्यंज्ञात्मक हँसी को छुपाने का असफल प्रयास करती हुई) बहुत है मैडम
पर तुम दिन भर काम करती हो बच्चे को सँभालना, घर की सारी जिम्मेदारी और फिर ब्यूटी पार्लर में भी काम देखना ,कैसे कर लेती हो यह सब ?
हो जाता है मैडम .....
पर इतनी कम तनख्वाह में कैसे ....? तुम्हें तो काम करने का अनुभव है फिर तुम अपना स्वयं का काम क्यों नहीं शुरू कर लेती ?अच्छी -खासी कमाई भी होगी और इतना काम भी नहीं करना पड़ेगा.....
(निम्मो की आँखें आँसुओं से छलक आई ) मजबूरी मैडम......
बस निम्मो इतना ही बोल पाई थी कि पीछे से उसकी किसी नियमित ग्राहक ने आवाज़ दे कर बुलाया निम्मो ने बिना कोई देरी किए अपने आँसू पोंछ लिए और पीछे मुड़कर उसे हँसते हुए बुलाया , उसके चेहरे पर वही हँसी थी मैं उस हँसी का राज जान चुकी थी पहली बार मुझे उसकी हँसी नकली प्रतीत हुई और लगा जैसे उसने चेहरे पर मुखौटा ओढ़ रखा हो
(जिस चेहरे पर मैंने सदा हँसी ही देखी , उसकी आँखों में आँसू देखकर मुझे खुद को ग्लानि अनुभव हुई)
निम्मो तो अपने उसी अंदाज में बात कर रही थी और मैं खड़ी हुई निम्मो की मजबूरी सोचने पर मजबूर थी कितने ही प्रश्न मन में उठने लगे थे ? मेरे पास हर प्रश्न का जवाब तो था मगर कोई हल नहीं
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