बुधवार, 9 जून 2010

चुभन- भाग ५

नलिनी को इस तरह फ़ूट-फ़ूट कर रोते हुए मैने पहली बार देखा था । अब मुझे अपनी बेवकूफ़ी का अहसास हुआ । मुझे नलिनी की व्यथा सुने बिना उससे इस तरह बात नहीं करनी चाहिए थी पर अब बोली हुई बात वापिस तो नहीं आ सकती थी ,मैने नलिनी को अपनी बाहों में भर लिया और वो थोडी देर यूंही मुझे चिपक कर रोती रही । न जाने कितने सालों से ये आंसु बह जाने को बेताब थे और मौका मिलते ही हर बांध तोड बह निकले । कुछ देर बाद नलिनी थोडा शांत हुई तो मैनें उसे आराम करने को कहा और कमरे से बाहर आ गई । शायद नलिनी के मन का बोज थोडा हल्का हो चुका था और उसे भी नींद आ गई । जब तक नलिनी सोई रही मैं उसी को लेकर परेशान होती रही । दो बार कमरे के अंदर झांक कर देखा कि कब जागे और कब मैं उसके बारे में आगे जान पाऊं । आखिर नलिनी के साथ ऐसा क्या हुआ होगा , यही सोच-सोच कर मैं बैचेन हुए जा रही थी । मैनें शाम की चाय बनाई और नलिनी के पास कमरे में ही ले गई । नलिनी जगी तो कुछ ताज़ा महसूस कर रही थी । मैं चाह कर भी एकदम से फ़िर क्या हुआ न पूछ पाई । थोडी इधर-उधर की बातें और फ़िर बातों ही बातों में मैने उसके स्वयं-सेविका बन यूं गली-गली में जाकर भाषण झाड्ने का कारण पूछ ही लिया । उसके चेहरे पर अजीब सी मुस्कान दौड गई ।बस नपे-तुले शब्दों में उत्तर दिया....

इससे मुझे मानसिक शान्ति मिलती है......और खामोश हो गई । उसकी खामोशी मेरे गले नहीं उतर रही थी ।

मैं उसके इस जवाब से संतुष्ट न थी और सीधा-सीधा राकेश के बारे में पूछने का साहस भी न जुटा पा रही थी ।नलिनी समझ गई कि मैं वास्तव में जानना क्या चाहती हूं । मैं ही नलिनी को समझ नहीं पा रही थी , वो तो मुझसे भलि-भांति परिचित थी ।थोडी खामोशी के बाद वह स्वयं बोलने लगी.......

तुम्हें पता है नैनां मेरे दो प्यारे-प्यारे बेटे हैं ,जुडवां हैं , बिल्कुल एक जैसे । शक्ल में राकेश की कार्बन कापी हैं , कहते-कहते नलिनी के चेहरे पर मां की ममता स्पष्ट झलक आई । मां कितना भी दुखी क्यों न हो , बच्चों की बात आते ही अनायास ही चेहरे पर मुस्कान और ममता उमड ही आती है । कुछ समय पहले जो नलिनी फ़ूट-फ़ूट कर मेरे सामने जिसके कारण रो रही थी ,वही नलिनी उसी के बच्चों के लिए सब कुछ भुला इस तरह मुस्कुरा रही थी कि मुझे उसका कोई रूप समझ ही नहीं आ रहा था । कोई इंसान इतने रूप कैसे बदल सकता है ।

अब मुझसे रहा न गया और मैनें पूछ ही लिया ...

क्या तुमनें राकेश से फ़िर कभी बात की .........।

नहीं..........।

क्यों .......?

मैं उस समय पेट से थी , हालत इतनी नाजुक थी कि कहीं आ जा नहीं सकती थी । मुझे देखने वाला कोई न था , एक मेरी काम वाली बाई के अलावा । तब से लेकर आज तक वही मेरा साथ निभा रही है । मैं आफ़िस जा नहीं सकती थी , राकेश को कई बार फ़ोन लगाया लेकिन कभी उसनें बात न की । मैं राकेश की नियत समझ चुकी थी लेकिन फ़िर भी एक बार उससे बात करना चाहती थी । अब राकेश के लिए मेरी भावनाएं खत्म हो चुकी थीं , मन में उसके प्रति नफ़रत बसने लगी थी और जिसके साथ नफ़रत हो जाए उसके साथ होने का भी कोई फ़ायदा नहीं , मैं बस एक बार उसको एक बार उसकी गलती का अहसास कराना चाहती थी , वो मौका मुझे कभी नहीं मिला । बच्चों के जन्म के बाद मैं दो महीने तक जिंदगी और मौत के बींच झूलती अस्पताल में रही । इस दौरान किसनें मेरा इलाज़ करवाया , बच्चों का सारा जरूरत का सामान कौन ले आया और क्यों ? मुझे कुछ पता न चला । ठीक होते ही मैनें अस्पताल में इलाज के खर्चे की बात की तो पता चला कि वो तो किसी नें पूरा का पूरा बिल चुका दिया है । मैं हैरान थी , ऐसा किसनें किया और क्यों लेकिन कुछ भी जान न पाई कि वो कौन है ? खैर मैं दोनों बच्चों को लेकर घर आ गई , और फ़ैसला किया कि अब तो मैं राकेश को कभी माफ़ करुंगी ही नहीं । तब मुझे बच्चे बोझ लगने लगे थे । सोचा था इन्हें राकेश के घर के बाहर फ़ैंककर उसके पाप को दुनिया के सामने लाऊंगी । इन्हीं उलझनों में उलझी मैं घर पहुंची , घर में मेरी काम वाली बाई नें मां के जैसा स्वागत किया । बच्चों को उसनें संभाल लिया और मैं रात भर सुबह होने का इंतज़ार करती रही कि आज तो किसी न किसी तरह मैं राकेश को बेनकाब करके ही छोडूंगी । बदले की आग में जलते हुए मुझे पूरी रात एक पल भी चैन न मिला । मैं सुबह-सुबह उठी और तैयार हो ही रही थी कि बाई चाय लेकर मेरे कमरे में आई । चाय के साथ-साथ उसनें मेरे हाथ में एक स्लिप भी थमा दी ,

ये स्लिप एक गाडी वाले साहब आए थे , उन्होंनें आपके घर आने पर आपको देने को कहा था ।

मैनें खोलकर देखा और मेरी आंखें फ़टी की फ़टी रह गईं ।

क्रमश:

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

आपका हर शब्द हमारे लिए प्रेरणा स्रोत है और आपके हर बहुमूल्य विचार का स्वागत है |कृपया अपनी बेबाक टिप्पणी जारी रखें |आपके पधारने के ले धन्यवाद...सीमा सचदेव