रविवार, 10 मई 2009

बौना कद

बौना कद
दुबला पतला शरीर , गोरा रंग ,चेहरे से झलकता आत्म-विश्वास ,साढे पाँच फुट कद , चाल ऐसी कि चले तो उसका कद वास्तविक से कहीं लम्बा लगता ,
असंभव शब्द जिसकी डायरी में कभी था ही नहीं ,हर समस्या का हल और हर कार्य में (चाहे घर हो या बाहर )सिद्धहस्त , उम्र लगभग तीस साल ,सॉफ्टवेयर
इन्जीनियर की पत्नी और स्वयं प्राध्यापिका , एक कुशल गृहिणी के साथ-साथ सुधा एक ममतामयी माँ ( जिसकी आँखों में न जाने नन्हे कदमों से चलते अपने बेटे के भविश्य लिए कितने सपने समाए है ) स्वयं को सबसे समझदार समझती समझती भी क्यों न अब तक सबकुछ समझदारी से जो किया था और तीस
साल की उम्र तक न जाने कितनी ही मुश्किलो को समझदारी से हल कर परिवार की समस्याओं का समाधान किया था यह केवल दिखावा नहीं था , वास्तव में स्वभाव
ही ऐसा था ,इसीलिए सुधा को क्या मायका क्या ससुराल....हर जगह भरपूर प्यार मिला कहीं चार रिश्तेदार इक्कठे होते तो सुधा की समझदारी की चर्चा अवश्य होती
जिसे सुनकर पहले मायके वालों का सीना चौडा होता था और शादी के बाद ससुराल वालों की छाती गर्व से फूल जाती सुधा को कभी अपने ऊपर घमंड नहीं हुआ और न ही कुछ
अच्छा करके बार-बार जताने की आदत थी शायद उसकी यह आदत सबको पसंद भी थी या पता नही .....?लेकिन कभी उसे किसी का विरोध सहना भी पडा तो बिना परवाह किए
वही किया जो उसका मन माना जब पता हो कि सबका विरोध करके आप जो करने जा रहे है उसमे किसी का अहित नहीं होता है तो वही करना चाहिए , यह उसने अपने माँ-बाप
से सीखा यह अलग बात है कि उन्हीं की दी हुई शिक्षा का पालन करते हुए कई बार न्हीं का विरोध करना पडा
खैर जिन्दगी अच्छी खासी चल रही थी सुधा अपने पति के साथ खुश थी तो उससे उसके मायके और ससुराल वाले शादी के दो साल बाद जब उसका बेटा हुआ तो तो जिन्दगी में सबसे बडी
परीक्षा का समय था सब सामान्य होते हुए भी बेटा सतमासा हुआ और तब घर से उसके पास कोई न आ सका उसे एक बार फिर अपनी समझदारी का परिचय देना था बेटा जिसका जन्म समय वजन डेढ किलो से भी कम था और जिसके इतने छोटे और कोमल शरीर को छूते हुए भी डर लगता था एक बार तो सारी हिम्मत जवाब दे गई कि नहीं संभाल पाएगी ऊपर से बच्चे को इन्फैक्शन का खतरा होने से किसी आय के हाथ भी नहीं सौंप सकती थी फिर न जाने अचानक से उसमें इतनी हिम्मत कहां से आई कि सारी की सारी जिम्मेदारी स्वयं उठाने का फैसला कर लिया और जिस तरह इतने नाजुक हालात में अपनी जिम्मेदारी निभाई उसे शब्दों में नहीं ब्यान किया जा सकता जब उसकी तारीफों के पुल बांधे जाते तो उसे सुनकर ऐसा गर्व महसूस होता कि दुनिया की सबसे समझदार माँ वही है
न जाने क्यों अब सुधा के स्वभाव में अचानक से कैसे बदलाव आ गया शायद अहं का भाव आ चुका था मन में या फिर माँ बनने के बाद यह स्वाभाविक परिवर्तन था न जाने क्यों उसके मन मे यह बात गहराई तक घर कर गई थी कि वही दुनिया की समझदारँ माँ है , यह कभी न सोचा कि जो उसने किया वो तो दुनिया की हर माँ करती है फर्क केवल इतना था कि उसे थोडा ज्यादा करना पडा वो भी बिल्कुल अकेले शायद इस लिए भी कि बच्चे के ले उसने अपना अच्छा-खासा करियर छोड दिया था पतिदेव अपने कार्य में व्यस्त रहते और दिन भर अकेले बच्चे को संभालते-संभालते उसे अजीब सी चिड-चिडाहट होने लगी थी एक तो कभी घर में बन्द होकर रहने की आदत न थी और दूसरा सफल करियर की चाहत कभी-कभी हालत यह होती कि अपने माँ बनने पर गुस्सा आता और इसे अपनी सबसे बडी नासमझी मान स्वयं को ही कोसती रहती लेकिन तभी बच्चे के मासूम चेहरे पर दौडती हल्की सी प्यारी मुस्कान स्व-तत्व को भूलने पर मजबूर कर देती
देखते ही देखते बच्चा डेढ साल का हो गया और उसकी हर नई हरकत , हर नया कदम सुधा मे आत्म-विश्वास के साथ साथ अहम भी भरता जाता वह बच्चेकी हर जरूरत को समझती उसक दुनियादारी सिखाने/समझाने या फिर उसकी हम-उम्र साथियों के साथ की जरूरत को समझते हुए सुधा ने उसे एक प्ले होम में डाल दिया घर से लगभग एक कि.मी. दूर हर रोज सुबह छोड कर आती , आकर घर का काम निपटाती और फिर दो-तीन घण्टे बाद वापिस लेने जाती और फिर उसको खिलाना,पिलाना ,सुलाना ,खेलना और थोडा पढाना ...बस यही दिनचर्या बन कर रह गई थी ,अंदर से एक टीस सी उठती अपना अच्छा खासा करियर छोड्ने की और यही बात वह अकसर अपने पति को जताती भी रहती फिर भी एक सफल माँ होने पर थोडा संतुष्ट थी
आजकल वह एक सफल माँ होने वहम को मन में पाले सर उठा कर चलती ,उसका अहम उसके चेहरे से साफ झलकने लगा था बच्चे को हर रोज कुछ न कुछ न्या सिखाकर और सीखते देखकर उसका कद कई गुना बडा लगने लगा था वह जब भी बच्चे को लेने जाती तो अकसर एक साधारण सी औरत को देखती जो अपनी छोटी से बच्ची की उंगली पकडे उसे ले जा रही होती बच्चे कोई भी हों अनायास ही अपनी ओर आकर्षित कर ही लेते हैं एक दूसरे को रोज देखते-देखते वे दोनों एक दूसरे को पहचानने लगी थी बच्ची की माँ ज्यादा पढी-लिखी न दिखती थी , एकदम साधारण और मार्ग में सहमी हुई सी धीरे-धीरे ऐसे चलती जैसे उसमें आत्म-विश्वास नाम की कोई चीज ही न हो सुधा उसे पिछले लगभग छ्:सात माह से देख रही थी बच्ची की स्कूल यूनिफॉर्म से स्कूल तो सुधा को पता चल ही चुका था और अब उसका बेटा भी स्कूल जाने योग्य हो गया था घर के पास ही एक बहुत अच्छा नामी स्कूल होने के कारण सुधा ने भी अपने बेटे को उसी स्कूल में दाखिला दिलाने की सोच रखी थी क्योंकि बच्चे को जहां भेजना है उसके बारे में पूरी जानकारी भी होनी चाहिए और सुधा तो हर कदम फूँक-फूँक कर रखती थी उसे पूरी तस्स्ली करके ही बच्चे को उस स्कूल में भेजना था यही सोच कर एक दिन जब उसने उस औरत को फिर से अपनी बच्ची के साथ देखा ,, स्कूल की जानकारी लेने हेतु पहले तो सुधा ने बच्ची को प्यार से बुलाया और फिर स्कूल के बारे मे पूछ-ताछ की इसके बाद वह जब भी दिखती तो वह औरत सुधा को देखकर मुस्करा देती , कभी कभी बातचीत भी हो जाती एक बार उससे यूँ ही पूछ लिया -
तुम रहती कहां हो ?
जी , ओल्ड मद्रास रोड
ओल्ड मद्रास रोड.....?पर वो तो बहुत दूर पडता है यहां से
जी मैडम.....
तो तुम इतनी दूर से आती हो ?
बच्ची के लिए मैडम (सुधा का ऐसा प्रतीत हुआ जैसे किसी ने उस पर प्रहार किया हो जिससे उसका तन क्या मन भी घायल हो गया )लेकिन फिर पूछा -
(तुम आती-जाती कैसे हो ?
लोकल बस से.....
तो इतनी देर कहां रहती हो ?
जब तक बच्ची स्कूल में रहती है ,तब तक मै दो-तीन घरों में बर्तन साफ करने का कार्य निपटा लेती हूँ इससे इसके स्कूल खर्च का इंतजाम भी हो जाता है और फिर छुट्टी के बाद इसे लेकर घर जाती हूँ
पर तुम इतनी दूर क्यों आती हो ?बच्ची को वही आस-पास किसी स्कूल में डाल कर भी तो तुम काम कर सकती हो ?
पास में कोई अच्छा स्कूल नहीं है , मै ज्यादा पढी-लिखी नहीं हूँ ,पर इसे पढाना चाहती हूँ इसके बापु ने बोला ....अगर इसे इतनी दूर और इतने मँहगे स्कूल में डालना है तो इसे लाने-लेजाने और खर्चों का प्रबन्ध तुम्ही करोगी ....
सुधा के पास तो अब जैसे बोलने को कोई शब्द ही नही रहे थे ,वह बोलते जा रही थी और उसका हर शब्द सुधा को अपनी ममता पर प्रहार लग रहा था उसके सामने आज सुधा को अपना कद बहुत बौना प्रतीत हुआ......

4 टिप्‍पणियां:

  1. पहले हमें लगा के साढे पांच फुट की महिला को अगर बौना कद लिखा है तो आखिर ऊंचा कद क्या होगा,,,,,?
    पूरी कहानी पढ़ कर जान पाए,,,
    सही है समय और परिस्थितियों के अनुसार किसी को अपने दायित्व कुछ ज्यादा ही निभाने पड़ जाते हैं तो किसी को कुछ कम,,,,
    इन बातों में अहम् का कोई स्थान नहीं होना चाहिए,,,,,
    अगर सुधा से अधिक त्याग इस बची की माँ का हमें लग रहा है तो दुनिया में कितनी ही माएं और भी होंगी जो इस से भी अधिक मेहनत करती होंगी अपने बच्चों पर,,, ,,
    पर माँ हर हाल में बस माँ होती है,,,,, ज्यादा समझदार या कम समझदार नहीं,,,,,

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